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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कानून मंजूर किया जायेगा। ट्रान्सवालकी सरकारने इसके मुताबिक करना मंजूर किया और लॉर्ड एलगिनने कानूनपर अपनी मुहर लगा दी।

उपर्युक्त पुस्तकमें रामसुन्दरके मुकदमेका पूरा विवरण दिया गया है। भूमिके अधिकारके विषयमें लॉर्ड एलगिनने ट्रान्सवालकी सरकारसे स्पष्ट कहा है कि भूमिका अधिकार नहीं मिल सकता। इसके बावजूद हम भी स्पष्ट रूपसे इतना ही कह सकते हैं कि यदि भारतीय कौम स्वार्थान्ध नहीं बनी और यदि उसने योग्य आचरण किया, तो थोड़े ही वर्षोंमें उसे जमीनका अधिकार भी मिल जायेगा।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ७-३-१९०८

५८. जीत किसमें है?

सभी कह सकते हैं और समझ सकते हैं कि कानून रद करनेका वचन दिया गया और स्वेच्छया पंजीयन स्वीकार किया गया, इसमें तो हमारी जीत है; किन्तु इस लेखमें हम कुछ दूसरी तरह विचार करना चाहते हैं। विचार करनेपर ऐसा जान पड़ता है कि संसारमें जनसाधारण जिसे जीत मान लेते हैं वह जीत नहीं, वरन् बहुत अंशमें जीतकी निशानी जैसी होती है। कई बार जीतकी निशानी होनेके बजाय वह हारकी निशानी भी होती है। हमें ऐसा कहनेमें कोई अतिशयोक्ति नहीं लगती। यदि कोई आदमी चोरी करनेके इरादेसे निकले, बड़ी कोशिश करे और वैसा करनेमें सफल हो जाये, तो उसके हिसाबसे वह जीत गिनी जायेगी। विचार करें, तो यह विजयके रूपमें उसकी पराजय हुई है; और यदि वह निष्फल होता तो उसकी जीत कहलाती। हमने यह मोटा उदाहरण लिया; क्योंकि यह शायद तुरन्त समझमें आ सकता है। मनुष्यकी जिन्दगीमें ऐसे सैकड़ों अवसर आते हैं जिनमें ठीक क्या है और गलत क्या है, इसे वह स्वयं आसानीसे नहीं समझ पाता। उस समय इच्छित परिणाम प्राप्त होनेपर हार मानें कि जीत, यह निश्चित करना मुश्किल जान पड़ता है। इसका अर्थ यह निकला कि वास्तवमें हार-जीतका सम्बन्ध परिणामसे नहीं है। फिर अमुक परिणाम प्राप्त कर लेना हमारे हाथमें नहीं है। यदि कोई मनुष्य ऐसा दम्भ करता है कि उसने अमुक-अमुक बात की, तो वह चक्रके ऊपर बैठी हुई मक्खीके समान झूठा दम्भ रखकर यह समझता है कि यह चक्र तो उसने ही घुमाया है। इसलिए मनुष्यका कर्त्तव्य तो यह हुआ कि समयपर प्राप्त स्थिति और देशमें उसके लिए जितना करने योग्य हो, उतना वह तन-मन-धनसे कर डाले। इसका अर्थं उसके लेखे जीत पाना ही है। बीमारको बचा लेना वैद्यका काम नहीं है, क्योंकि वह बात उसके हाथमें नहीं है, किन्तु उसको बचानेके लिए अपना सम्पूर्ण कौशल और पूरी भावना लगा देना उसका कर्त्तव्य है। यदि वह उतना कर ले, तो वह जीता माना जाता है। उसके बाद बीमार बचता है या नहीं, इससे उसकी जीतमें न कोई कमी आती है, न वृद्धि होती है।

यहाँतक समझ लेनेके बाद अब हम ट्रान्सवालके संघर्षका विचार करेंगे। हम बिना हिचकिचाहटके कह सकते हैं कि यदि नया कानून थोड़ी-सी कोशिश से ही रद हो जाता, तो हम