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जीत किसमें है?

उससे सन्तोष मान सकते थे; किन्तु तब उसमें हार-जीतकी कोई बात न होती। यदि वह कानून सहज ही रद हो गया होता, तो स्पष्ट है कि उससे हमारे नामका डंका न पिटता। आज भारतीयोंकी जीतकी गूँज सारी दुनियामें जैसी गूँज रही है, वैसी न गूँजती। वस्तुस्थिति आज यह बताती है कि भारतीयोंकी जीत कानून खत्म किये जानेकी आशामें नहीं, किन्तु उसे खत्म करनेके लिए जो-कुछ किया गया, उसमें है। यदि कानून खत्म न होता, तो भी भारतीयोंकी हिम्मतके गीत घर-घर गाये जाते। हम ऐसे बहुत-से दृष्टान्तोंका स्मरण कर सकते हैं। इस समय मुझे एक प्रख्यात दृष्टान्त याद आ रहा है। स्पार्टाके मुट्ठी-भर लोग थर्मापोलीका रास्ता रोककर खड़े हो गये और जबतक उनमें से एक भी आदमी जीवित रहा, तबतक उन्होंने शत्रुका सामना किया।[१] अन्तमें यह रास्ता शत्रुओंके कब्जेमें चला गया। किन्तु दुनिया आज भी जानती है कि जीत तो स्पार्टाके बहादुरोंकी ही हुई और आजतक यूरोपमें कोई भी मनुष्य जब जबर्दस्त बहादुरी करता है, तब कहा जाता है कि उसने स्पार्टनों जैसी बहादुरी दिखाई। इसलिए, जितना करने योग्य था उतना भारतीयोंने किया, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता; किन्तु भारतीय कौमने बहुत किया, बड़ा प्रयास किया और उस हदतक परिणाम कुछ भी हुआ हो, हम उसे उसकी जीत ही मानते हैं। यह समझ लेना चाहिए कि इस सिद्धान्त अनुसार भारतीयोंको सदा ही लड़ते रहना है; क्योंकि अभी बहुत-से उद्देश्य प्राप्त करते हैं। जमीनें लेनी हैं, गाड़ियोंमें स्वतन्त्रतापूर्वक यात्रा करनी है। यह सब करनेके लिए हमने आजतक जैसी कोशिश की, वैसी हमेशा करनी पड़ेगी, इसलिए यह सहज ही समझा जा सकता है कि कदम-कदमपर हमारी जीत ही है। कदम-कदमपर जीतके लिए हमें कदम-कदमपर जो करना है सो करते जाना चाहिए। जो मनुष्य जीतको इस तरह देखता है, वह कभी फूल न जायेगा। वह कभी भूल नहीं कर सकता और वह प्राप्य फलकी परवाह नहीं करता; क्योंकि उसका बोझ वह व्यक्ति अपने ऊपर नहीं उठाता। बोझ उठानेवाला तो केवल इस जगतका सिरजनहार ही है, बाकी 'मैं कर्ता हूँ, मैं कर्ता हूँ'[२] सोचना तो अज्ञान है; यह तो "शकटका भार ज्यों श्वान खींचे"[३] मानने जैसी बात हुई।

[ गुजराती से ]
इंडियन ओपिनियन, ७-३-१९०८
 
  1. 'फेडेरेशन हाल' के निर्माणका सुझाव (पृष्ठ ११३) रखनेके कुछ समय बाद ही गांधीजी द्वारा थर्मापोलीका यह दृष्टान्त देना अर्थपूर्ण है। स्पार्टन शौर्यके स्मारकपर लियोनिडासकी यह प्रसिद्ध आशा अंकित है: "नाश्ता यहाँ; भोजन हेडेस ( यमलोक ) में।"
  2. २-
  3. "हूँ करूँ हूँ करूँ-एज अज्ञानता, शकटनो भार ज्येम श्वान ताणे" ( आश्रम भजनावली ); अर्थात्, जैसे गाड़ीके नीचे चलता हुआ कुता यह मानता है कि गाड़ीको मैं ही खींच रहा हूँ।