६५. मेरा जेलका अनुभव [२]
हम सबके दिनमें घूमने फिरनेके लिए एक छोटा-सा आँगन था जिसके चारों ओर दीवार थी। आँगन इतना छोटा था कि उसमें दिनको चलना-फिरना कठिन होता था। नियम था कि उस अहातेके कैदी बिना इजाजत बाहर नहीं जा सकते। नहाने और पाखाना जानेकी सुविधा भी इसी अहातेमें की गई थी। नहानेके लिए पत्थरके दो बड़े हौज थे और बरसात जैसे नहानेके लिए दो फुहारेदार नल थे। पाखानेके लिए एक बालटी और पेशाबके लिए दो बालटियाँ थीं। शर्म बचाकर एकान्तमें नहाने-धोने अथवा शौचकी सुविधा नहीं थी। जेलकी नियमावलीमें भी यह बात थी कि कैदियोंके लिए एकान्तमें शौचकी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए। इसलिए कई बार कैदियोंको दो-दो तीन-तीनकी कतारमें बैठकर शौच करना पड़ता था। नहानेकी भी यही हालत थी। पेशाबकी बालटी भी खुलेमें थी। यह सब शुरू-शुरूमें अटपटा लगता है। किसी-किसीको तो इसमें बड़ी ही तकलीफ होती है। फिर भी गहराईसे सोचनेपर समझा जा सकता है कि जेलखानेमें ऐसी बातें एकान्तमें सम्भव नहीं हैं। और सार्वजनिक रूपसे इन्हें करनेमें कोई खास बुराई नहीं है। इसलिए धीरजके साथ ऐसी आदत डाल लेनी चाहिए और इस प्रकारकी बेपर्दगी से घबराना या परेशान नहीं होना चाहिए।
कोठरीमें सोनेके लिए लकड़ीके तीन इंची पायोंपर तख्ते लगे हुए थे। प्रत्येकके पास दो कम्बल, छोटा-सा तकिया और सोनेके लिए बिछाने लायक नारियलकी चटाई---ये चीजें थीं। एक-आध बार तीन कम्बल मिल सकते थे मगर वे सिर्फ मेहरबानीके तौरपर। कई लोग ऐसी सख्त शय्यासे घबराते दीख पड़ते थे। सामान्यरूपसे जिन्हें मुलायम बिछौनेपर सोनेकी आदत होती है उन्हें ऐसी कठोर शय्यापर सोना मुश्किल लगता है। वैद्यक शास्त्रके नियमके अनुसार कठोर शय्या अधिक अच्छी मानी जाती है। इसलिए यदि हम घरोंमें भी सख्त बिस्तरको काममें लानेका चलन अपनायें तो जेलकी शय्यासे कष्ट न हो। कोठरीमें हमेशा एक बालटी पानी रहता था और रातमें पेशाबके लिए एक और बालटी गड्ढेमें रखी जाती थी; क्योंकि रातको कोई भी कैदी कोठरीसे बाहर नहीं जा सकता। हर आदमीको आवश्यकतानुसार थोड़ा साबुन, एक सूती अँगोछा और लकड़ीका चम्मच भी दिया जाता था।
सफाई
जेलखानेमें रखी जानेवाली स्वच्छता बहुत ही अच्छी कही जा सकती है। कोठरीका फर्श हमेशा जन्तुनाशक पानीसे धोया जाता था। उसके किनारे-किनारे चूनेसे ढिग दी जाती थी। इससे कोठरी सदा नई-सी बनी रहती थी। गुसलखाने और पाखाने भी सदा साबुन और जन्तुनाशक पानीसे साफ रखे जाते थे। मुझे स्वयं सफाईका शौक है, मैं ऐसा मानता हूँ। इसलिए जब संघर्षके अन्तिम दिनोंमें हमारे बहुत लोग आ गये तब मैं खुद ही जन्तुनाशक पानीसे पाखाना साफ करने लगा। पाखाना उठानेके लिए सदा नौ बजे कुछ चीनी कैदी आते थे। उसके बाद दिनमें सफाई अपने हाथों ही करनी पड़ती थी। सोनेके तख्ते सदा पानी और बालूसे रगड़कर धोये जाते थे। असुविधाकी बात केवल इतनी ही थी कि तकिया और कम्बलोंकी सैकड़ों कैदियोंमें बार-बार अदल-बदल हो जानेकी सम्भावना थी।