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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लिखनेको कहा है। समितिके सदस्य कौन हैं और समितिने क्या काम किया है, इस विषयमें संघको कुछ बताना आवश्यक नहीं है। सभी इस बातको मानेंगे कि यदि समिति एक बार भंग हो जाये, तो फिर उसकी स्थापना मुश्किल होगी। फिर अभी वहाँके और नेटालके बहुत-से सवाल बचे हुए हैं। उनके विषयमें भी मुझे कुछ कहनेकी आवश्यकता नहीं है। नेटाल काँग्रेसका एक पत्र था जिसमें [ विक्रेता ] परवाना अधिनियमके कारण भारतीयोंकी परेशानीकी बात लिखी थी। यह प्रश्न बड़े महत्त्वका है। आशा है, ऐसे प्रश्नोंकी चर्चा करनेमें वहाँके भारतीय पैसेका लोभ नहीं करेंगे।

श्रीमती रिचकी बीमारीके कारण मुझे कुछ महीने तो यहाँ रहना ही पड़ेगा। डॉक्टरने उनपर दुबारा शल्य क्रिया की है। उनकी ऐसी स्थिति हो गई है कि दो परिचारिकाएँ उनकी सेवामें रखनी पड़ी हैं। ऐसी स्थितिमें मेरा यहाँसे जाना सम्भव नहीं होगा। मेरे मनमें यह विचार चलता रहता है कि यदि मैं स्वयं यहाँ वकालत करूँ, तो समितिको मुझपर कम खर्च करना पड़े; और यदि अपने लिए एक कार्यालय ले सकूँ, तो समितिका किरायेका खर्च बच जाये।

बैरिस्टर श्री जिन्नाने मुझे प्रेसिडेंट स्ट्रीटके श्री मुहम्मद शाहका तार दिखाया था। इस तारमें उन्होंने सूचित किया है कि लगभग ७०० मुसलमान समझौतेसे नाराज हैं। उनका विचार पंजीयन न करवानेका ही जान पड़ता है। श्री जिन्नाको मैंने यह जवाब लिख देनेकी सूचना दी है कि तारसे [ ट्रान्सवालमें ] सबके एकमत होनेका समाचार पढ़कर प्रसन्नता हुई। इस सम्बन्धमें तथ्य क्या हैं, सूचित कीजिए।

अब यह तय करना भारतीय समाजके हाथमें है कि समितिका क्या करे। समिति कायम रखनेकी आवश्यकता जान पड़ती है। यदि श्रीमती रिचकी बीमारी बीचमें न आती, तो समितिका खर्च कम होता। किन्तु जो खर्च हुआ है, उतनेसे भी समितिका काम चलाया जा सकता है। यह भी हमारे लिए कम खुशीकी बात नहीं है। इसलिए हमें विश्वास है कि समितिको चलाने लिए प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक भारतीय परिश्रम करेगा। बहुत-से व्यक्ति सहज ही इस काममें मदद कर सकते हैं। इसलिए हमें आशा है कि प्रत्येक भारतीय इस सम्बन्धमें आवश्यक सहायता देगा और अपने विचार प्रकट करेगा।

[ गुजराती से ]
इंडियन ओपिनियन, २१-३-१९०८