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मेरा जेलका अनुभव [३]

ही माफिक आती है और इसीलिए वे जेलमें आकर तन्दुरुस्त हो जाते हैं। किन्तु भारतीयोंको तो चावलके सिवा कोई और चीज माफिक नहीं आती। मकईका आटा शायद ही कोई भारतीय खाता हो; अकेली सेम खानेकी भी हमें आदत नहीं होती। और वे लोग शाक-सब्जी जिस ढंग से पकाते हैं वैसी शाक-सब्जी खाना भारतीयोंको कभी पसन्द नहीं आ सकता। वे शाक- सब्जी साफ नहीं करते और उसमें मसाला भी नहीं डालते। फिर वतनियोंके लिए बननेवाली सब्जी ज्यादातर तो गोरोंके लिए बनी हुई सब्जीका छिलका अथवा अवशेष होता है। मसालोंमें सिवा नमकके दूसरा कुछ भी नहीं दिया जाता। चीनीका तो नाम भी नहीं रहता। इसलिए खुराकका मामला सबको कठिन लगा। फिर भी हमने निश्चय किया कि सत्याग्रही जेलके अधिकारियोंसे चिरौरी करने नहीं जायेंगे और उनकी कृपा भी नहीं चाहेंगे। इसलिए हम लोगोंने उपर्युक्त खूराकसे सन्तोष कर लिया।

गवर्नरने हमसे पूछताछ की। उन्हें उत्तरमें बताया गया कि 'खूराक ठीक नहीं है। किन्तु हम सरकारसे कोई रियायत नहीं चाहते। यदि सरकारको ही सूझे और वह फेरफार करे तो ठीक ही है; नहीं तो कानूनन जो खूराक हमें मिलती है, हम वही लिया करेंगे।'

किन्तु यह निश्चय बहुत दिनोंतक नहीं टिका। जब और लोग आये तब हम सबने विचार किया कि दूसरोंको खूराक-सम्बन्धी कष्टमें शामिल करना ठीक नहीं है। वे जेल आ गये, यही काफी है। और उनकी खातिर सरकारसे अलग माँग करना उचित है। इस खयालसे गवर्नरसे इसकी बातचीत शुरू कर दी। गवर्नरसे कहा कि यद्यपि हम चाहे जैसी खूराकपर रह सकते हैं, फिर भी हमारे बादके लोग ऐसा नहीं कर पायेंगे। गवर्नरने इसपर विचार किया और यह उत्तर दिया कि, "केवल धार्मिक कारणोंसे अलग रसोई करनेकी इजाजत मिल सकेगी, लेकिन खूराक तो जो दी जाती है वहीं रहेगी। दूसरे प्रकारकी खूराक देना मेरे हाथमें नहीं है।"

इस बीच, जैसा पहले कह चुके हैं,[१] चौदह भारतीय और आ गये। उनमें कुछ लोगोंने पुपु (मकईकी लपसी) लेनेसे साफ इनकार कर दिया और भूखे रहने लगे। इसपर मैंने जेलके नियम पढ़ डाले और पाया कि इस विषयमें जेल-विभागके निदेशक (डायरेक्टर ऑफ प्रिजन्स) को आवेदनपत्र भेजा जा सकता है। तदनुसार गवर्नरसे अर्जी देनेकी इजाजत लेकर नीचे लिखे अनुसार अर्जी भेजी।[२]

उपर्युक्त प्रार्थनापत्रपर हम इक्कीस व्यक्तियोंने हस्ताक्षर किये। इसके बाद जब आवेदन-पत्र भेजा जा रहा था तब ७६ भारतीय और आ गये। उन्हें भी पुपु नापसन्द थी। इसलिए प्रार्थनापत्रके नीचे एक वाक्य यह जोड़ा गया कि ७६ व्यक्ति और आये हैं; और यह कठिनाई उन्हें भी महसूस होती है। अतएव तुरन्त प्रबन्ध किया जाना चाहिए। मैंने गवर्नरसे प्रार्थना की कि यह अर्जी तारसे भेजी जाये। इसपर उन्होंने टेलीफोनपर निदेशककी अनुमति लेकर तुरन्त पुपुके बदले चार औंस रोटी देनेका हुक्म दिया। हम सभी लोग बड़े खुश हुए। इसलिए २२ तारीखसे हमें सबेरे ४ औंस रोटी मिलने लगी और शामको भी पुपुवाले दिन रोटी मिला करती। साँझको ८ औंस अर्थात् आधी रोटीका हुक्म था। यह व्यवस्था केवल दूसरे हुक्म आने तक के लिए ही थी। गवर्नरने इस सवालपर विचार करनेके लिए समिति बैठाई थी और अन्तमें आटा, घी, चावल, दाल देनेकी बात चल रही थी कि इतनेमें हम लोग छूट गये और इसलिए कुछ खास नहीं हो पाया।

 
  1. देखिए "मेरा जेलका अनुभव [२]", पृष्ठ १३४-३७।
  2. प्रार्थनापत्रके अनुवादके लिए देखिए "प्रार्थनापत्र: जेल-निदेशकको", पृष्ठ ३८-३९।