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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पहले जब हम केवल ८ ही व्यक्ति थे तब हम रसोई नहीं बनाते थे। चावल ठीक नहीं बनता था और जब हरे शाककी बारी आती तब वह बहुत खराब बनता था। इसलिए हमने स्वयं पकानेकी इजाजत भी ले ली। पहले दिन श्री कड़वा रसोई बनाने गये। उसके बाद श्री थम्बी नायडू तथा श्री जीवण ये दोनों रसोई करने जाते थे। इन लोगोंने अन्तिम दिनोंमें रोज १५० आदमियों तक का भोजन बनाया। रसोई बनानेके लिए एक वक्त जाना पड़ता था। हफ्तेमें दो बार हरे शाककी बारी आती, तब दोनों वक्त जाना पड़ता था। श्री थम्बी नायडू खासा श्रम करते थे। सबको परोसनेका काम मेरे जिम्मे था।

पाठक उपर्युक्त प्रार्थनापत्रसे यह समझ सकेंगे कि ध्वनि हमने ऐसी रखी है कि हमें कुछ अपने ही लिए अलग तरह की खूराक नहीं चाहिए बल्कि परिवर्तन भारतीय कैदी मात्रके लिए किया जाना चाहिए। गवर्नरसे भी इसी प्रकारकी बात हुआ करती थी और उसने यह मंजूर किया था। अब भी आशा की जा सकती है कि जेलमें भारतीय कैदियोंकी खुराकमें सुधार हो जायेगा।

फिर तीनों चीनियोंको चावलके बदले हमसे भिन्न खुराक मिलती थी, इससे जी कचोटता था। इससे ऐसा आभास होता था कि चीनियोंको हमसे अलग और हीन गिना जाता है। इसलिए उनकी ओरसे भी मैंने गवर्नर तथा श्री प्लेफर्डको अर्जी भेजी[१] और अन्तमें हुक्म आया कि चीनियोंको भारतीयोंकी तरह ही खूराक दी जाये।

खूराकके विषयमें लिखते हुए यूरोपीयोंको जो दिया जाता है उससे तुलना करना ठीक होगा। उन्हें सबेरे नाश्तेमें पुपु तथा ८ औंस रोटी मिलती है। [दोपहरके] खानेमें भी हमेशा रोटी और रसम् (सूप) अथवा रोटी और गोश्त तथा आलू अथवा हरा शाक। शामको सदा रोटी तथा पुपु। अर्थात् यूरोपीयोंको, तीन बार रोटी मिलनेके कारण पुपु मिलती है या नहीं, इसकी फिक्र नहीं होती। फिर गोश्त और रसम् मिलता ही था इसलिए इतना उन्हें हमसे अधिक मिला। सिवा इसके उन्हें कई बार चाय और कोको भी मिलती है। इस तरह वतनियोंको अपनी रुचिका और यूरोपीयोंको उनकी रुचिका भोजन मिलता था। बेचारे भारतीय अधरमें ही लटके रहे। उन्हें अपनी खूराक नहीं दी जाती; और यूरोपीयोंकी खूराक दी जाये तो गोरे बुरा मानें; और भारतीयोंकी अपनी खुराक क्या है इसका विचार भी अधिकारी किस लिए करें! तब फिर उनके लिए वर्तनियोंकी श्रेणीमें डाले जाकर दुःख भोगना ही रह गया।

ऐसा अंधेर अभीतक चल रहा है। मैं इसे अपने सत्याग्रहकी कसर मानता हूँ। एक प्रकारका भारतीय कैदी चोरीसे अन्य आवश्यक खूराक मँगाकर खाता है, इसलिए उसे भोजन सम्बन्धी कष्ट नहीं होता। दूसरे प्रकारका भारतीय कैदी जो खूराक मिलती है सो खा सकता है; अपने ऊपर आये हुए दुःखकी कहानी कहनेमें उसे शर्म आती है अथवा दूसरोंकी वह कोई चिन्ता नहीं करता। इसलिए बाहरके लोग अँधेरेमें रहते हैं। यदि हम सत्यपर दृढ़ रहें और जहाँ अन्याय हो वहाँ विरोधकी आवाज उठायें तो ऐसे कष्ट सहन ही न करने पड़ें। इस प्रकार यदि स्वार्थ छोड़ दें और परमार्थका ध्यान रखें तो कष्ट-निवारणका उपाय तत्काल निकल आता है।

किन्तु जिस प्रकार ऐसे कष्टका उपाय आवश्यक है उसी प्रकार एक अन्य विचार करना भी जरूरी है। जेल जानेपर कुछ-न-कुछ कष्ट उठाने ही पड़ते हैं। यदि कष्ट ही न

 
  1. यह उपलब्ध नहीं है।