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मेरा जेलका अनुभव [४]

हमने जो उदाहरण दिये हैं, वे केवल हमारे महारोगकी निशानियाँ हैं। हमारी मान्यता है कि जबतक छल-कपटके ऐसे तरीके हमारे बीच चलते रहेंगे, तबतक भारतके लिए चैनसे बैठना कभी सुलभ न होगा। हम यहाँसे पैसा भेजें अथवा कोई दूसरी मदद करें, इसके बजाय हमें स्वयं अच्छा होना चाहिए। सत्य ग्रहण करना बड़ी मदद हैं, और सच्ची मदद है। यहाँके भारतीय सत्य करनेवाले, सत्य बोलनेवाले और बहादुर बनें, तो उसका असर भारतपर अवश्य पड़ेगा। शरीरमें कोई पीड़ा हो, तो मनको उसकी प्रतीति होती है। यदि कहीं [ किसी हिस्सेमें ] कुछ अच्छा हो, तो उसका अच्छा असर सब जगह होता है। इसी प्रकार जिस समाजमें कुछ लोग अच्छा करते हैं उसका अच्छा असर तमाम समाजपर पड़ता है और खराब करनेका असर खराब पड़ता है। यह ईश्वरीय नियम है, ऐसा हम मानते हैं। और यदि हमारे पाठक भी ऐसा ही मानते हों, तो पाँच करोड़ भारतीयोंमें फैली हुई दुःखदायी भुखमरीका वर्णन पढ़कर दयालु भारतीयोंको तुरन्त सत्य धारण करने-करानेका प्रयत्न करना चाहिए। हम इसीको अपने देशकी सच्ची मदद समझते हैं। यह इलाज बहुत कठिन है; उसी प्रकार बहुत सरल भी है। थोड़ा विचार करनेसे सभी इस निर्णयपर पहुँच सकेंगे कि यही सच्चा उपाय है।

[ गुजराती से ]
इंडियन ओपिनियन, २८-३-१९०८

७५. मेरा जेलका अनुभव [४]

रोगी

हम डेढ़ सौ कैदियोंमें से यदि एक भी बीमार न पड़ता तो बड़े ताज्जुबकी बात होती। पहले रोगी श्री समुन्दर खाँ थे। उन्हें तो जब वे जेलमें आये तभी तकलीफ थी। इसलिए उन्हें आनेके बाद दूसरे ही दिन अस्पतालमें ले गये। श्री कड़वाको संधिवातका रोग था। कितने ही दिनों तक कैदखानेमें ही डॉक्टरसे मरहम वगैरह लेते रहे। किन्तु बादमें उन्हें भी अस्पतालमें भर्ती होना पड़ा। दूसरे अन्य दो कैदियोंको चक्कर आनेके कारण अस्पताल ले जाया गया। हवा बहुत गर्म थी इसलिए, और बाहर धूपमें रहना होता था इसलिए, किसी-किसीको चक्कर आ जाते थे। उनकी सार-सँभाल यथासम्भव की जाती थी। आखिरी दिनोंमें श्री नवाबखाँ भी बीमार पड़ गये थे। और छूटनेके दिन चलनेके लिए उन्हें हाथोंका सहारा देना पड़ा था। डॉक्टरने उनको दूध आदि देनेका आदेश दिया, तब कहीं उनकी तबीयत कुछ सँभली। फिर भी कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सत्याग्रही कैदियोंका स्वास्थ्य ठीक रहता था।

जगहकी तंगी

मैं कह चुका हूँ कि हमें जिस कोठरीमें बन्द किया जाता था उसमें केवल ५१ कैदियोंके रहने योग्य जगह थी। आँगन भी उतने ही कैदियोंके लायक था। अन्तमें जब ५१ की जगह १५१ से भी अधिक कैदी हो गये तब बड़ी कठिनाई उपस्थित हुई। गवर्नरने बाहर तम्बू लगवाये। कई लोगोंको वहाँ ले जाया जाता था। आखिरी दिनोंमें १०० कैदी सोनेके लिए बाहर जाते थे; किन्तु सवेरे उन्हें वापस ले आया जाता था; इसलिए आँगन बहुत छोटा पड़ता था। उतनी-सी जगहमें कैदी बड़ी मुश्किलसे रह पाते थे। और तिसपर हम अपनी