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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आदतके मुताबिक जहाँ-तहाँ थूक देते थे; इसलिए जगहके बहुत गन्दे होने और लोगोंके बीमार पड़नेकी सम्भावना पैदा होती थी। किस्मतसे लोग समझानेपर मान जाते थे और आँगन साफ रखनेमें मदद करते थे। आँगन तथा पाखानेकी देख-रेख बड़ी सतर्कताके साथ की जाती थी। तभी लोग बीमारीसे बच पाये। इतने कैदियोंको ऐसी तंग जगहमें रखा गया, इसमें सरकार दोषी है, इसे सभी मानेंगे। यदि जगहकी तंगी थी तो सरकारको लाजिम था कि इतने कैदियोंको न भेजती। यदि संघर्ष लम्बा चलता तो सरकार और कैदियोंका समावेश नहीं कर सकती थी।

वाचन

मैंने पहले कहा है[१] कि गवर्नरने हमें जेलमें मेज दी जानेकी अनुमति दे दी थी। साथ ही दावात कलम आदि भी दिये गये थे। जेलमें एक पुस्तकालय भी था। उसमें से कैदियोंको किताबें दी जाती हैं। उनमेंसे मैंने कार्लइलकी पुस्तक तथा बाइबल ली थीं। जो चीनी दुभाषिया आता था उसके पाससे अंग्रेजीमें कुरानशरीफ, हक्सलेके भाषण, कार्लाइल द्वारा लिखित बर्न्स, जॉन्सन और स्कॉटके जीवन-वृत्तान्त तथा बेकनके नीति-विषयक निबन्ध--ये पुस्तकें मैंने ली थीं। मेरी अपनी पुस्तकोंमें से मणिलाल नभुभाईकी[२] टीकावाली गीताजीकी पुस्तक, तमिल पुस्तकें, मौलवी साहब द्वारा दी हुई उर्दूकी किताब, टॉल्स्टॉय की रचनाएँ, रस्किन तथा सॉक्रेटीजकी[३] रचनाएँ, ये पुस्तकें थीं। मैंने इनमें से बहुतसी किताबें जेलमें पढ़ीं या दुबारा पढ़ीं। तमिलका नियमसे अभ्यास करता था। सवेरे गीताजी और दोपहरमें ज्यादातर कुरानशरीफके अंश पढ़ता, शामको श्री फोर्तोएनको बाइबिल पढ़ाता। श्री फोर्तोएन चीनी ईसाई हैं। उनका अंग्रेजी सीखनेका इरादा था, इसलिए उन्हें बाइबिलके द्वारा अंग्रेजी सिखाता था। यदि दो माहका पूरा जेल-निवास भोगा होता तो कार्लाइलकी एक पुस्तकका और रस्किनकी पुस्तकका[४] अनुवाद पूरा कर सकनेकी आशा थी। मेरा खयाल है कि मैं ऊपरकी पुस्तकोंमें डूबा रह सकता था। इसलिए यदि मुझे दो माहसे भी अधिककी सजा हुई होती तो मैं हिम्मत न हारता। इतना ही नहीं, मैं अपने ज्ञानमें उपयोगी वृद्धि कर सकता था। अर्थात् बड़े मजेमें रहता। फिर मेरी यह भी मान्यता है कि जिन्हें अच्छी पुस्तकें पढ़नेका शौक है वे एकान्तका समय चाहे जैसी जगहमें आसानीसे काट सकते हैं।

जेलके साथियोंमें मेरे सिवा पुस्तकें पढ़नेवाले थे श्री सी० एम० पिल्ले, श्री नायडू और चीनी कैदी। दोनों ही नायडू गुजराती सीखने लगे थे। अन्तिम दिनोंमें कुछ गुजराती गीतोंकी पुस्तकें भी आई थीं; उन्हें बहुत लोग पढ़ते थे। किन्तु मैं इसे वाचन नहीं मानता।

कवायद

जेलमें सारा दिन पढ़ते ही नहीं रह सकते। और यदि वह सम्भव भी हो तो अन्ततोगत्वा हानिकारक होगा, हम यह जानते थे; इसलिए हमने बड़ी कठिनाईसे दरोगाके पास

 
  1. देखिए "मेरा जेलका अनुभव [२]", पृष्ठ १३४-३७।
  2. मणिलाल नभुभाई द्विवेदी (१८५८-९८); संस्कृतके पण्डित, गुजराती कवि, लेखक व पत्रकार; भारतीय दर्शनपर कई पुस्तकोंके प्रणेता; स्वामी विवेकानन्दके साथ विश्वधर्म परिषद (अमेरीका) में शरीक हुए थे।
  3. स्पष्टतः प्लेटोज़ डायलॉग्स, क्योंकि गांधीजीने निश्चय ही इन्हीं दिनों एक सत्यवीरनी कथा (सुकरातका मुकदमा और उसकी मृत्यु) नामकी गुजराती लेख-माला लिखना प्रारम्भ किया होगा।
  4. अन्टु दिस लास्ट।