पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 8.pdf/१९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६०
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मुस्तफा कामेल पाशाको लोग अपना रक्षक एवं उद्धारकर्ता मानते थे। उनका लोगोंके प्रति कितना स्नेह था, इस सम्बन्धमें अनेक भावनापूर्ण किस्से हैं। जब कभी किसी कीमको सरकार (अंग्रेज) के विरुद्ध कोई शिकायत करनी होती तब वे 'लीवा' (मुस्तफा कामेल पाशाका अखबार) के दफ्तरको घेर लेते और बीच-बचाव करने या मार्गदर्शनके लिए कामेल पाशासे प्रार्थना करते। ऐसे समय उन्हें कैसा व्यवहार करना चाहिए इस विषयमें वे उन्हें सलाह देते और कहा करते कि दृढ़ता और साहससे काम लो तथा सत्य और कर्तव्यके मार्गपर डटे रहो। इन सद्गुणोंके कारण कामेल पाशाने नाम कमाया था।

लोग उनको कितना प्रेम करते थे पाशा इसका एक उदाहरण बड़े गर्वके साथ सुनाया करते। एक बार भाषण देनेके लिए भवनमें जाते हुए वे "अरबागी" किरायेपर लेकर वहाँ गये। उसके पश्चात् वहाँ कोचवानको एक घंटेतक रुकना पड़ा। भाषण देनेके पश्चात् जब कामेल पाशा किराया देने लगे तब कोचवानने उसे लेनेसे साफ इनकार कर दिया और कहा कि जन-नायककी सेवा करनेमें मुझे बहुत आनन्द मिलता है और गर्व होता है। वे लोगोंमें कितने प्रिय थे इसके ऐसे अनेक दृष्टान्त मिलते हैं। लोग उनके वचन सुनकर पागल हो उठते और अपना कर्तव्य पालन करने तथा मिस्रकी उन्नति करनेके लिए आतुर हो जाते।

(अपूर्ण)

[ गुजराती से ]
इंडियन ओपिनियन, २८-३-१९०८

७८. पत्र:[१] सी० ए० डी आर० लैबिस्टरको

[ जोहानिसबर्ग ]
मार्च २८, १९०८

श्री सी० ए० डी आर० लैबिस्टर
डंडी
प्रिय महोदय,

विषय: बद्री तथा अन्य व्यक्ति

मैं इस मामले से सम्बन्धित सभी कागजात पढ़ गया हूँ। यदि प्रतिकथनके अनुच्छेद ६ और ७ में किये गये दावे सच हैं, अर्थात् यदि वह जमीन जिसे वावड़ाके नाम दर्ज करनेकी चेष्टा की जा रही है, इकरारनामेमें कही गई जमीन नहीं है, तो हम मामलेको सरलतासे जीत लेंगे। किन्तु मुझे लगता है कि यह इतना अच्छा है कि सच नहीं हो सकता; क्योंकि इससे वावड़ा लगभग झूठा ठहरता है। इसलिए मैं आशा करता हूँ कि आप स्वयं सारे तथ्योंके बारेमें पूरी तरह आश्वस्त हो गये हैं और गुरदीनने चाहे जो कहा हो उसीपर निर्भर नहीं रहे हैं। क्योंकि हो सकता है कि उसने जोशमें आकर बहुत-सी गलत बयानियाँ कर दी हों।

आपका विश्वस्त,

[ अंग्रेजी से ]

टाइप की हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ४८०५) से।

 
  1. देखिए "पत्र: सी० ए० डी आर० लैबिस्टर को", पृष्ठ १३९।