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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ब्रिटिश शासनका आरम्भ होनेपर मिस्त्रियोंके खिलाफ तिरस्कार और उपेक्षा बतानेकी जो बाढ़ आई उसे रोकना ही मुस्तफा कामेल पाशाके प्रयत्नका लक्ष्य था। इस प्रयत्नमें उन्हें सफलता मिली, इस बातसे कोई इनकार नहीं कर सकता। आज फ्रेंच लोग मिस्त्रियोंके विषयमें ऊँची राय और उनके प्रति सहानुभूतिका भाव रखते हैं इसका श्रेय मुस्तफा कामेल पाशा द्वारा चलाये गये महान् संघर्षको ही है। भाषणों, संवादों और लेखोंके द्वारा उन्होंने दिखा दिया था कि देशोन्नतिके लिए चाहे जितनी मेहनत करनी पड़े, वे थकनेवाले न थे। उनके लेखों और भाषणोंमें इटलीके महान् देशभक्त मैजिनीके सिद्धान्तोंकी झलक मिलती है। मैज़िनीका यह विश्वास कि अन्तमें सत्य और न्यायकी ही विजय होती है, पाशाके भाषणों और लेखोंमें भी खूब दिखाई पड़ता है। अपने कर्तव्योंके प्रति उपेक्षाका भाव, स्वदेशाभिमानकी कमी और कायरता, इन दुर्गुणों को वे मिस्रका शत्रु मानते थे और इनके नाशके लिए बड़े- बड़े आन्दोलन चलाते थे।

उन्हें इस बातका पूरा निश्चय हो गया था कि पश्चिमके बौद्धिक साधनोंके बिना मिस्रकी सच्ची उन्नति नहीं हो सकती। वे मानते थे कि पश्चिम और पूर्वके लोगोंके सम्बन्ध अधिक गाढ़े होने चाहिए और उसकी आवश्यकतापर जोर देनेमें उन्होंने कुछ भी बाकी न रखा था। फिर भी वे इस्लामके पक्के अनुयायी थे। धार्मिक सुधारके बारेमें उनके उत्साहका पार न था। तुर्कीके साथ उनका सम्बन्ध सुविदित था। इस बातसे चिढ़कर कुछ गोरे उन्हें "टरको-फाइल"[१] कहते थे। उनकी राजनीतिक विचारधाराकी एक मान्यता यह थी कि तुर्की मिस्रकी आजादीके आड़े नहीं आयेगा। सुल्तान उनके राजनीतिक विचारोंके लिए उनका सम्मान करता था और उसने उन्हें "द्वितीय श्रेणीके मजीदिया" तथा "रुतवा-उल-सुफतानी" की उपाधियाँ प्रदान की थीं।

अपने जीवनके अन्तिम वर्षोंमें उन्होंने जो काम किया उसे सारा मिस्र अच्छी तरह जानता है। ज्यों-ज्यों उनकी उम्र बढ़ती गई, वे अपने ऊपर अधिकाधिक काम लेते गये। वे ऐसे व्यक्ति न थे कि किसीसे डर जायें या अपने हाथमें ली हुई मुहिमका त्याग कर दें। सूडानपर इंग्लैंडके अधिकार तथा ऐसी ही दूसरी घटनाओंसे मिस्रवासियोंकी स्वतन्त्रताको क्रूर आघात पहुँचा। किन्तु ऐसी घटनाओंसे पाशा एक क्षणके लिए भी निराश नहीं हुए। ज्यों-ज्यों उनके समर्थक उन्हें त्यागते गये और दूसरे डरपोक दोस्त अपने देशका समर्थन करना छोड़ते गये, त्यों-त्यों मुस्तफा कामेल पाशाकी हिम्मत और प्रबल होती गई और वे अपने प्रयत्नोंमें अधिकाधिक परिश्रम करते गये।

सन् १९०६ के दिसम्बरमें उन्होंने मिस्र के "राष्ट्रीय" दलकी स्थापना की थी। यह उनका अन्तिम महान कार्य था। उस दिन मृत्युशय्यासे उठकर उन्होंने जो भाषण दिया उससे हजारों लोग भावना-वश पागल-जैसे हो गये थे। उन्होंने तालियोंकी जोरदार गड़गड़ाहटके साथ उनके (राष्ट्रीय) दलके सिद्धान्तोंका पालन करनेका जो वचन दिया वह मानो अपने देश-बन्धुओंको मुस्तफा कामेल पाशा द्वारा मरते समय सौंपी गई धरोहर है।

अपने दलकी स्थापनाके कामके सिलसिलेमें उन्हें जो अपार परिश्रम करना पड़ा उससे उनके नाजुक स्वास्थ्यको ऐसा धक्का लगा कि फिर वे सँभल ही न सके। मरण-शय्यापर पड़े-पड़े

 
  1. तुर्कीका पिट्ठू।