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कुष्ठ रोगियोंकी दुआ

विभिन्न देशोंसे गोरे अपना-अपना काम छोड़कर आते हैं। वे यहीं मानते हैं कि ऐसा करनेमें सच्चा परमार्थ है। वह सचमुच ईश्वरका कार्य है और उसे करनेमें उनका तथा उनके समाजका कल्याण है। कैनडासे श्री ऐंडर्सन नामक एक धनाढ्य गौरांग सज्जन यह काम करनेके लिए इन अस्पतालोंमें आये हैं।

इन सबका खर्च कौन चलाता है? यदि कोई ऐसा सवाल उठाये तो हमने ऊपरके तथ्य जिस किताबमें से लिये हैं उसी किताबमें इसका जवाब भी है। खर्चके लिए ये लोग विलायतमें चन्दा इकट्ठा करते हैं। हम भारतमें से उन्हें थोड़े पैसे ही देते हैं।

इसका उद्देश्य क्या है? इस सवालका जवाब भी सीधा है। बेशक उनका यह खयाल है कि इस प्रकारके जो रोगी मिलते हैं उन्हें ईसाई बनाया जाये। किन्तु यदि वे ईसाई न बनें तो भी वे उन्हें निकाल बाहर नहीं करते। उनका उद्देश्य हर हालतमें उनकी सेवा-शुश्रूषा करना रहता है।

जो समाज ऐसा परमार्थ करता है और जिस समाजमें ऐसा काम करनेके लिए हजारों मनुष्य मिल जाते हैं, वह समाज क्योंकर सुखी न हो, वह समाज क्योंकर राज्य न करे?

भारतके लोग जबतक अपना इस प्रकारका बोझ स्वयं नहीं उठाते, अपना ही कर्तव्य पूरा नहीं करते, तबतक वे किस प्रकार सुखी हो सकते हैं, किस प्रकार उन्हें स्वराज्य मिल सकता है? स्वराज्य मिल भी जाये, तो उससे क्या लाभ हो सकता है? इंग्लैंडमें कुष्ठ रोगी न हों, ऐसा नहीं है। उनकी और जरूरतें नहीं हैं, ऐसा भी नहीं है। किन्तु अंग्रेज-समाज ऐसे कामोंके लिए दूसरोंपर निर्भर नहीं रहता। अपना कर्तव्य वे स्वयं करते हैं। हम किसी अन्य समाजकी मदद करें, यह तो दूरकी बात है, हम स्वयं अपना ही बोझ नहीं उठा पाते।

ये बातें सोचने योग्य हैं। ऊपर-ऊपर विचार करके, वे हमें अधिकार नहीं देते इसलिए अंग्रेजोंको बुरा कहकर, उन्हें निकाल बाहर करनेका आन्दोलन चलाकर, हम अपनी विजय मान लेते हैं; किन्तु ऐसा करके हम अपना नुकसान करते हैं, फायदा नहीं। हम वास्तविक कारणको भुला देते हैं।

अंग्रेज राज्य करते हैं और सुख भोगते हैं, इसका कारण इन कुष्ठ रोगियोंकी दुआ ही क्यों न हो? और हम दुःख भोगते हैं; इसका कारण उनकी बददुआ क्यों नहीं हो सकती?

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ११-४-१९०८