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८९. केपके भारतीय

केप टाउनके 'केप आरगस'ने लिखा है:

जब दक्षिण आफ्रिकासे गोरोंके दलके-दल कामकी कमीके कारण चले जा रहे हैं तब सरकारके लिए जरूरी है कि वह अन्य लोगोंके आगमनपर ध्यान रखे। ज्यों-ज्यों गोरे निकलते जायें त्यों-त्यों एशियाई आते जायें--यह बहुत बुरा होगा। हमें एक पत्र मिला है; उससे जान पड़ता है कि प्रवासी कानूनपर अमल जितनी सावधानीसे किया जाना चाहिए उतनी सावधानीसे नहीं किया जाता, ऐसा सन्देह किया जा सकता है। कदाचित् कानूनमें ही कमी होगी, उसके कारण ऐसा होता होगा। हमारे पत्र लेखकने कहा है कि दो सौ एशियाई अपने आपको सोलह वर्षसे कमका बताकर उतरे हैं। वे कहते हैं कि उनके पिता यहीं हैं, और उनकी माताएँ भारतमें हैं। यह बात ऐसी गम्भीर है कि इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।

'केप आरगस' की यह टिप्पणी मनमें अंकित कर लेने योग्य है। याद रखना चाहिए कि 'केप आरगस' सामान्यतः भारतीयोंके प्रति वैर-भाव नहीं रखता। फिर भी वह ऐसा क्यों लिखता है? कहीं हमारा दोष तो नहीं है? हमारे विरुद्ध कुछ कहा जाये या किया जाये तो सबसे पहले हमें अपना ही दोष देखना चाहिए, यह बहुत अच्छा नियम है।

केपमें भारतीयोंके प्रवेशके सम्बन्धमें कोई धोखाधड़ी होती है या नहीं, इसका पता हमें नहीं है। हमें उसका कोई अनुभव नहीं है। किन्तु नेटाल आदिमें जो-कुछ होता है उससे अनुमान किया जा सकता है कि इसमें कुछ अंशमें हमारा दोष भी होना चाहिए। यदि उक्त आरोपमें कुछ सत्य हो तो केपके भारतीयोंको विचार करना चाहिए। इस समय स्थिति ऐसी है कि दक्षिण आफ्रिकामें अधिक भारतीय नहीं आ सकते। यह आवश्यक है कि वे यहाँ न आयें।

ट्रान्सवालसे भी ऐसी ही शिकायत आई है। ऐसा कहा जाता है कि लोग वहाँ चोरीसे जाने लगे हैं।

इसका इलाज कैसे हो? यह प्रश्न बड़ा है। किन्तु यह भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि इस प्रश्नके उचित समाधानपर ही भारतीय समाजकी प्रतिष्ठा निर्भर है।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ११-४-१९०८