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अंग्रेज सत्याग्रही महिलाए

रातमें हमें हमारे भोंयरेमें (कोठरी में) बन्द कर दिया जाता था। वहाँ लकड़ीके एक पटियेपर नारियलके रेशोंसे बनी हुई चटाई बिछाकर और दो पतले कम्बल ओढ़कर हम लेट जाते थे। नींद तो आती नहीं थी। सुबह छः बजे, जब कि जाड़ोंकी सुबहका अंधेरा पूरा मिटा भी नहीं होता था, हमारे उठनेकी घंटी बज जाती थी। मैं उठकर कभी-कभी तो रातके पहने हुए कपड़ोंपर ही दिनके कपड़े पहन लेती। रातको जो ठंड पड़ती, उसके कारण मुझे ऐसा करना पड़ता। बादमें कलईके एक बरतनमें हम मुँह धोते और आईना न होनेके कारण जैसे-तैसे अपने बाल बाँधते। इतनेमें कोठरीका दरवाजा खोल दिया जाता था, और हमसे पानी भरने जानेको कहा जाता था।

कोको (मैंने उसे कभी चखा नहीं था, इसलिए मैं उसका स्वाद नहीं बता सकती) और रोटी खानेके बाद हम कोठरीको धोते थे। यह रिवाज पहलेसे चला आ रहा था। मुझे वह बेढंगा और मूर्खतापूर्ण मालूम हुआ।

कोठरी धोने और अपना लकड़ीका चम्मच तथा प्रार्थनाकी पुस्तक आलमारीपर यथास्थान रख देनेके बाद हमें डाकखानेके लिए टाटकी थैलियाँ सीनेका काम दिया जाता था। बादमें आधा घंटा प्रार्थना करनेके लिए जाते थे। तीस-चालीस स्त्रियाँ साथ बैठतीं। उस समय कोई स्त्री किसी दूसरी स्त्रीके साथ बातचीत न करे, इसलिए हमारी निरीक्षिका सामने बैठकर हमारी चौकसी करती थी।

फिर आधा घंटा कसरत करनेके बाद सबको दिनवाली कोठरीमें भर दिया जाता था। वहाँ हरएकको सख्त मेहनतका काम करना पड़ता था। दोपहरके समय चाबियोंकी आवाज और दरवाजोंके खुलनेकी खड़खड़ाहटके साथ भोजन आ जाता था। उसमें जो थोड़ी-सी चीजें होतीं, उनमें आलू भी होता था और वही एक चीज मैं खाती थी।

शामके समय चाय अथवा कोकोके साथ रोटी दी जाती थी। फिर डाकके थैले सीनेके काम आनेवाले कड़े धागेको काटनेके लिए दी गई कैंचियाँ वापस ले ली जातीं थीं। ऐसा करनेका हेतु शायद यह था कि अँधेरा होनेके बाद जो सख्त ठंड पड़ती है उससे घबराकर कोई इन कैंचियोंका प्रयोग आत्मघात करनेके लिए न करे। मोजे बाँधने के लिए बन्द न देनेमें भी यही हेतु था। यह बात मुझे बादमें बताई गई थी।

कैदियोंको पत्र नहीं दिये जाते और न उन्हें किसीको पत्र लिखनेकी ही स्वतन्त्रता है। किसी कैदीके नाम कोई पत्र आये तो अधिकारी उसे पढ़कर इस टिप्पणीके साथ उसे भेजनेवालेके पास लौटा देते हैं कि कैदीको पत्र पानेका अधिकार नहीं है।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ११-४-१९०८