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१०२. एक सत्यवीरकी कथा [३]

सुकरातका बचाव

"अब आप समझ सकते हैं कि मेरे विरुद्ध इतने आरोप लगानेवाले लोग क्यों हैं। मैंने राज्यकी अन्य सेवा इसलिए नहीं की कि हम कितने अज्ञानी हैं और मानव-जातिका ज्ञान कितना अल्प है, मैं इसका प्रत्यक्ष चित्र देनेमें व्यस्त रहा। मैंने अपना [दूसरा] सब काम छोड़ रखा है और मैं अत्यन्त दरिद्र रहा हूँ। किन्तु मुझे लगा कि यदि मैं मनुष्यको उसके अज्ञानका भान कराता हूँ तो मैं इसमें परमात्माकी सेवा करता हूँ। और चूँकि मैंने यह सेवा पसन्द की है, इसीलिए मेरे विरुद्ध लोगोंकी नाराजी बढ़ गई है।

"इसके अतिरिक्त कुछ युवक, जिनके पास अधिक काम नहीं है, मेरे पीछे फिरते हैं, और जैसे मैं प्रश्न करता हूँ, वैसे ही वे भी अर्ध- ज्ञानियोंसे प्रश्न पूछते हैं। इस प्रकार जिनसे प्रश्न पूछे जाते हैं और जिनकी पोल खुलती है, वे लोग मुझसे रुष्ट हो जाते हैं। वे मुझपर कोई दूसरा आरोप नहीं लगा सकते, इसलिए वे कहते हैं कि "यह आदमी उचितसे अधिक गहरे पैठता है, हमारे देवताओंको नहीं मानता और बुरेको अच्छा कहकर बताता है"। ऐसे लोग अपने अज्ञानको ढँकनेके लिए मेरे विरुद्ध सब लोगोंके कान अनुचित रूपसे भरते हैं। इन लोगोंमें मेलीटस और अन्य व्यक्ति। मेलीटस यह कहते हैं कि मैं एथेंसके युवकोंको बिगाड़ता हूँ। अब मैं मेलीटससे ही प्रश्न करता हूँ।"

सुकरात: मेलीटस, क्या आपको यह नहीं लगता कि युवकोंको जिस रीति से सम्भव हो, सद्गुणी बनाया जाये?

मेलीटस: मुझे ऐसा लगता है।

सु०-तब युवकोंको सद्गुणी कौन बनाता है?

मे०-कानून।

सु०-इससे मेरे प्रश्नका उत्तर नहीं मिला। मैं यह पूछता हूँ कि उनका सुधार कौन करता है?

मे०-सुधार तो न्यायाधीश करते हैं। सु०-क्या आप यह कहते हैं कि जो न्यायके आसनपर बैठे हैं वे सद्गुण सिखा सकते हैं?

मे०-निस्सन्देह।

सु०-वे सभी या उनमें से कुछ ही?

मे०-सभी।

सु०-आपने ठीक कहा। अब मैं पूछता हूँ कि जो लोग यहाँ सुननेके लिए एकत्र हुए हैं, वे क्या वैसी शिक्षा नहीं दे सकते?

मे०-वे भी दे सकते हैं।

सु०-तब आप यह कहते हैं कि ऐथेंसके सभी लोग युवकोंको सद्गुण सिखा सकते हैं और केवल मैं ही उनको बिगाड़ता हूँ?

मे०-मैं यही कहता हूँ।