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११०. कैनडाके भारतीय

कैनडाके भारतीयोंकी स्थिति जानने योग्य है। वहाँ कोई ऐसा खास कानून नहीं है कि भारतीयोंको निकाला जा सके। वहाँ ज्यादा भारतीय पंजाबके हैं। वे सब सिखके नामसे प्रसिद्ध हैं।[१] किन्तु हम अपने यहाँके अनुभवसे जान सकते हैं कि सब भारतीयोंका सिख होना सम्भव नहीं है। उस देशमें आबाद भारतीय प्रायः मजदूरी करते। अभी हालमें कानूनमें एक छोटा-सा बहाना ढूँढकर उन लोगोंको, जो हाँगकाँगसे आये थे, उतरने नहीं दिया गया। अधिकारियोंने कहा कि यदि ये भारतीय भारतसे सीधे आये होते तो कोई बाधा न होती।[२] कैनडावालोंने जापानी लोगोंको आने दिया फिर भारतीयोंसे वे ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं? इसका रहस्य क्या है? एक बात तो यह है कि कैनडाके जापानी वीर थे। जो गोरे उनको डराने गये उन्हें मार खानी पड़ी।[३] जापान सरकार स्वतन्त्र है और वह अपने लोगोंके अधिकारोंकी रक्षा करती है। वह सरकार स्वतन्त्र है, क्योंकि लोग स्वयं स्वतन्त्र विचारके हैं। भारतीय तो जब कैनडामें हुल्लड़ हुआ तब घरोंमें छुप गये। भारत कोई उपाय नहीं कर सकता और उसकी सरकार ऐसी नहीं है जो भारतीयोंके अधिकारोंके लिए लड़े। भारतीय परतन्त्र हैं। इसका कारण अंग्रेजी राज्य या अंग्रेजी झंडा नहीं है। किन्तु इस राज्यके कारण हम हैं। इस राज्यको हटानेमें कोई लाभ नहीं दिखाई देता, किन्तु हम इसी राज्यको सुधार सकते हैं। हममें स्वतन्त्रताकी भावना नहीं है, इसलिए हम परतन्त्र हैं। यदि वह भावना हममें फिर आ जाये और हम न्यायकी माँग करें तो वह हमें मिलेगा। इतने भारतीय कैनडामें हैं। फिर भी उनमें अच्छी तरह शिक्षा पाया हुआ एक भी व्यक्ति दिखाई नहीं देता।

इतनी कठिनाइयाँ होनेपर भी कैनडा और अन्य भागोंमें काले लोगोंके विरुद्ध जो आन्दोलन चल रहा है उससे लाभ ही मानना चाहिए। हम सीखते जा रहे हैं और अंग्रेजोंकी आँखें भी खुलती जा रही हैं।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २५-४-१९०८
 
  1. उन्हीं दिनों भारतीय प्रवासियोंके प्रश्नकी चर्चा करते हुए रुडयाड किपलिंगने एक लेखमें लिखा था कि ये लोग ज्यादातर पंजाबसे आये हुए मजहबी और जाट सिख हैं। वे चिराई मिलोंमें काम करते हैं और बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
  2. जनवरी ८ को ४६ हिन्दू पूर्वसे मांटईगल जहाजमें आये थे। इन्हें उपनिवेशकी सरकारने एक आशा निकालकर निर्वासित करनेका निर्देश दिया। उसका कहना था कि ये अपनी जन्मभूमिसे सीधे सामान्य रास्तेसे नहीं आये हैं। किन्तु सर्वोच्च न्यायालयमें मामला ले जानेपर वे २४ मार्चको रिहा कर दिये गये क्योंकि न्यायालयने उनके निर्वासनको गैरकानूनी ठहराया था।
  3. उपनिवेशियोंकी आपत्ति वस्तुतः जापानियोंके विरुद्ध थी जिन्होंने वैंकूवरके मछली-व्यवसायपर एकाधिकार कर लिया था। किपलिंगने लिखा है: जापानियोंपर जब हमला किया जाता है तब वे रोषमें भरकर अपना बचाव करते हैं।... भारतीयोंके सम्बन्धमें सचमुच गलतफहमी है; किन्तु उनसे कोई घृणा नहीं करता...। इस अवसरपर जापानियोंने अपने मुहल्लेपर बाड़ खड़ी कर ली और बाहर इकट्ठे हो गये। उन्होंने टूटी बोतलें दोनों हाथोंमें लेकर उनसे प्रदर्शनकारियोंके मुँहपर प्रहार किया। यालू (जापान) के लोगों को डराकर भगानेकी अपेक्षा भौंचक्के हिन्दुओं और तमिलोंको घबराहटमें डाल देना और मार-पीटकर सीमाके पार कर देना, जैसा कि वहाँ किया जा रहा है, ज्यादा आसान है।