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नेटालके विधेयक

हीन होने चाहिए।' इसलिए मैं मानता हूँ कि किसी अच्छे मनुष्यको ऐसा नाटक न करना चाहिए। और यदि वह करना चाहे तो इस नगरकी सम्मान-रक्षाके लिए उसको उससे रोकना उचित है। जन-साधारणका कर्तव्य तो यह है कि आप जो दण्ड दें वे उसे धैर्यसे भोगें। और आपका कर्तव्य यह है कि जो रोने-धोनेका नाटक करना चाहें आप उनको धिक्कारें।

"फिर प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठाका प्रश्न छोड़ देनेपर भी मुझे लगता है कि प्रतिवादीका काम दया माँगना नहीं है। उसका काम न्याय माँगना है। और उसके लिए उसे सचाईको प्रस्तुत करके उसपर तर्क करना चाहिए। न्यायाधीशका काम दया दिखाना नहीं है; बल्कि पक्षपात किये बिना न्याय करना है। इसलिए मुझको और आपको दोनोंको यह उचित है कि हम वैसा काम न करें जिससे मेरी और आपकी प्रतिज्ञामें बाधा आये।

"यदि मैं आपके सम्मुख गिड़गिड़ाकर आपकी प्रतिज्ञाको तुड़वानेका प्रयत्न करूँ तो मुझपर मेलीटस नास्तिकताका जो आरोप लगाता है, वह सिद्ध होनेके समान माना जायेगा। जो मनुष्य ईश्वरको मानता है वह दूसरेकी प्रतिज्ञाको तुड़वाये तो यह माना जायेगा कि उसने ईश्वरका विरोध किया; अर्थात्, यह कहा जायेगा कि वह ईश्वरको नहीं मानता। किन्तु मैं तो इतनी दृढ़तासे ईश्वरको मानता हूँ जितना आपमें से कोई न मानता होगा। इसलिए मैं उसपर भरोसा रखकर मेरे सम्बन्धमें जो ठीक हो सो करनेका अधिकार आपके हाथमें निर्भयतापूर्वक देता हूँ।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन', २-५-१९०८

११९. नेटालके विधेयक

वे 'भारतीय' विधेयक, जिनका पूर्वाभास उपनिवेश सचिवसे पहले ही मिल चुका था, अब 'गजट' में प्रकाशित हो गये हैं। अगर ये विधेयक स्वीकृत हो गये, तो ३० जून १९११ के पश्चात् नेटालमें कोई भी गिरमिटिया भारतीय मजदूर प्रवेश न पा सकेगा। दूसरे विधेयक के अनुसार ३१ दिसम्बर १९०८ के पश्चात् भारतीयों या अरबोंको कोई नये परवाने न दिये जायेंगे। तीसरे विधेयकके अनुसार १० वर्षके पश्चात् भारतीय परवाने बिलकुल बन्द हो जायेंगे, बशर्ते कि व्यापारके मुनाफेपर तीन वर्ष तक के लाभके बराबरकी रकम मुआवजेके रूपमें अदा कर दी जाये।

उपनिवेशका प्रत्येक भारतीय पहले विधेयकका स्वागत करेगा। और हमें विश्वास है कि उसे संसदके दोनों सदन एकमत होकर स्वीकार कर लेंगे। यह दुःखकी बात है कि गिरमिट प्रथा कुछ और पहले ही बन्द नहीं की जा सकती। शेष दो विधेयकोंसे भारतीय व्यापारियोंमें आतंक फैलेगा। ये विधेयक जितने अत्याचारपूर्ण हैं उतने ही मूर्खतापूर्ण भी हैं। जिन लोगोंने इन विधेयकोंको तैयार किया है, वे अब भी "भारतीय या अरबों" की बात करते हैं। परन्तु वे यह बात भूल जाते हैं कि नेटालमें ऐसे कोई "अरब" नहीं हैं जो भारतीय भी न हों, और उनके ध्यानसे यह बात भी उतर जाती है कि, जहाँतक भारतवासियोंसे तात्पर्य है "अरब" एक ऐसा शब्द है, जिसकी असत्यता सिद्ध हो चुकी है। यदि इन दो विधेयकोंमें से पहला विधेयक कानून बन जाता है और उसपर सम्राट्की स्वीकृति मिल जाती है तो इस