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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बातको साधारण बुद्धिवाला आदमी भी समझ सकता है कि फिर दूसरे विधेयककी जरूरत ही नहीं रह जाती। दस वर्षकी समाप्तिपर मुआवजा लेनेके लिए कोई भारतीय व्यापारी रहेगा ही नहीं; क्योंकि हमारा खयाल है कि नये व्यापारिक परवानोंमें एक व्यक्तिसे दूसरे व्यक्तिको और, इसी तरह, एक स्थानसे दूसरे स्थानको हस्तान्तरित किये जानेकी बात शामिल है। ऐसे भारतीय, जो पैदाइशी व्यापारी हैं, या जो पहले व्यापारी रह चुके हैं लेकिन जो आज या तो किन्हीं दूसरे भारतीयोंके साथ साझा किये हुए हैं या उनकी नौकरीमें हैं, क्या करेंगे? दूसरे भारतीयोंकी तरह उनको भी व्यापारी परवाने क्यों नहीं दिये जाने चाहिए? महज इस बात से कि एक भारतीयने व्यापारी परवाना अपने नाम जारी करवा लिया है और दूसरा उसकी नौकरीमें है, और, वास्तवमें, व्यापार चला रहा है--दूसरा आदमी स्वतन्त्र--रूपसे अपना व्यापार चलाने से वंचित क्यों रखा जाये? और दस वर्ष पश्चात् क्या भारतीयोंके बीच भी व्यापार करनेके लिए कोई भारतीय व्यापारी न रहेगा? हम परवानोंके अन्धाधुन्ध जारी किये जानेकी हिमायत नहीं करते; लेकिन हमारा यह खयाल जरूर है कि उन लोगोंको, जो स्वभावतः व्यापारी हैं, अपना कारोबार चलानेके लिए हर प्रकारकी सुविधा दी जानी चाहिए और यही एक तरीका है जिसके अनुसरणसे कोई देश अपने निवासियोंसे अधिकसे-अधिक लाभ उठा सकता है। बहुत-से भारतीयोंके सामने केवल दो ही मार्ग हैं--ईमानदारीका व्यापार या दगाबाजी और बेईमानी। निश्चय ही नेटालके मन्त्रिगण उपनिवेशमें धोखेबाजी और बेईमानीको जन्म नहीं देना चाहते। खैर, हमारा खयाल है कि यदि वे ऐसा समझते हैं कि भारतीय समाजको इस मामलेमें कुछ कहना है ही नहीं, या वह महाप्रयास किये बिना ही अपने आपको मिट जाने देगा, तो वे गलतीपर हैं।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ९-५-१९०८

१२०. ट्रान्सवालमें स्वेच्छया पंजीयन

ट्रान्सवालमें एशियाइयोंके स्वेच्छया पंजीयनकी अवधि आज[१] समाप्त हो रही है। मोटे तौरपर, प्रायः प्रत्येक एशियाईने स्वेच्छया पंजीयनकी अर्जी दे दी है। दूसरे शब्दोंमें, उसने अपनी नई शिनाख्त कराना मंजूर कर लिया है। लगभग आठ हजार अर्जियाँ दी गई हैं। उनमें से छः हजार ठीक मानी जाकर मंजूर हो चुकी हैं। यह दोनों पक्षोंके लिए श्रेयकी बात है। इस तरह एशियाइयोंने अपना दायित्व, भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियोंसे, पूर्ण कर दिया है। अब सरकारको अपना कर्तव्य पूरा करना है; अर्थात् उसे एशियाई अधिनियमको रद करने और स्वेच्छया पंजीयनको ऐसे ढंगसे वैध ठहराना है कि वह एशियाइयोंको भी स्वीकार हो और औपनिवेशिक दृष्टिसे भी सन्तोषजनक हो जिसका मतलब हुआ नवागन्तुकोंकी अनधिकृत बाढ़ को रोका जाये। भारतीय समाजने औपनिवेशिक सिद्धान्तको स्वीकार कर लिया है। अतः अब संघर्षका कोई और कारण नहीं रहना चाहिए।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ९-५-१९०८
 
  1. मई ९; देखिए "जोहानिसबर्गकी चिट्ठी", पृष्ठ २१८-१९।