पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 8.pdf/२६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२७
भेंट: 'स्टार' को

अपराध होता हो तो क्षमा करें। चौदह वर्ष तक स्वाध्याय और मनन करनेके बाद और सात बरसके आचरणके बाद अपने इन विचारोंको, अवसर देखकर, आपके सामने रख रहा हूँ।

मोहनदासके दण्डवत् प्रणाम

[ गुजराती और हिन्दीसे ]

'महात्मा गांधीना पत्रो' (गुजराती); सम्पादक, डी० एम० पटेल, सेवक कार्यालय, अहमदाबाद १९२१; और प्रभुदास गांधीकृत 'जीवन प्रभात' (हिन्दी); सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली. १९५४। पत्रका प्रथम पैराग्राफ तथा अन्तिम पैराग्राफ मूल गुजरातीमें कट-फट जानेके कारण हिन्दी पुस्तकसे लिये गये हैं।

१३३. भेंट: 'स्टार' को

[ जोहानिसबर्ग
मई १६, १९०८के पूर्व ]

जोहानिसबर्गके बैरिस्टर श्री मो० क० गांधी प्रस्तुत कानूनसे सर्वाधिक सम्बन्धित समाजके अग्रगण्य सदस्य हैं। इस कारण इस कानूनके विषयमें, जिसे नेटाल सरकार अपने यहाँके भारतीयोंके लिए बनानेवाली है, उनकी बात बहुत ध्यानसे सुनी जानी चाहिए।...

जहाँतक मुझे मालूम है, पहले विधेयकका, अर्थात् गिरमिटिया आव्रजन बन्द करनेके विधेयकका, प्रत्येक भारतीय स्वागत करेगा। दुःखकी बात केवल इतनी ही होगी कि वह इससे पहले बन्द नहीं किया गया और वह अब भी आगामी दो वर्षोंतक बन्द होनेवाला नहीं है। यदि भारतसे गिरमिटिया लोग न लाये गये होते, तो दक्षिण आफ्रिकामें भारतीय प्रश्न ही न होता। हाँ, सम्भव है कि भारतीयोंके सन्तोषका कारण वही न हो---और न है ही---जो यूरोपीयोंके सन्तोषका है। भारतीयोंके विचारमें गिरमिटिया-प्रथा यदि सम्पूर्ण भारतीयों अथवा सम्बन्धित भारतीयोंके लिए लाभप्रद हो भी तो बहुत ही कम है। यह प्रथा गिरमिटिया लोगोंको उत्थान अथवा प्रगतिकी ओर नहीं ले जाती। भारतके सरकारी इतिहासकार स्वर्गीय सर विलियम विल्सन हंटरके[१] शब्दोंमें यह अर्द्धदासत्वकी दशा है।

शेष दो विधेयकोंपर तो बहुत आपत्ति की जा सकती है। मैंने किसी भी ब्रिटिश उपनिवेशमें ऐसे कानून नहीं सुने। परवाने देनेवाले इन दो विधेयकोंमें से पहलेका मंशा यह है कि नेटालमें नये परवाने देना बन्द ही कर दिया जाये। उसका अर्थ यह हुआ कि कारोबारका एक जगह से दूसरी जगह ले जा सकना समाप्त हो जायेगा; क्योंकि ज्यों ही कोई व्यापारी अपने व्यापारको एक स्थानसे दूसरे स्थानपर ले जाता है त्यों ही उस व्यापारको नया समझा

 
  1. सर विलियम विल्सन हंटर (१८४०-१९००); भारत तथा ब्रिटिश साम्राज्य सम्बन्धी अनेक पुस्तकोंके लेखक; इम्पीरियल गज़ेटियर ऑफ इंडियाके १४ खण्डोंका संकलन और सम्पादन किया; वाइसरॉयकी लेजिस्लेटिव कौंसिलके सदस्य, १८८१-८७; अवकाश ग्रहण करनेके बाद लंदन-स्थित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसकी समितिके सदस्य बने, और १८९०से लंदनके प्रसिद्ध दैनिक टाइम्समें भारतीय प्रश्नोंपर लेखादि लिखते रहे।