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नेटालके विधेयक

नहीं जानता कि भारतको बाहर रखकर ब्रिटिश साम्राज्यका अस्तित्व सम्भव भी है या नहीं।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १६-५-१९०८

१३४. नेटालके विधेयक

नेटाल परवाना विधेयकोंपर जितना अधिक विचार करते हैं, उनके प्रति उतना ही असंतोष उत्पन्न होता है। ये विधेयक साम्राज्य सरकारको खुली चुनौती हैं। ये स्पष्ट रूपसे और खुलकर भारतीयोंपर प्रहार करते हैं, न कि आम तौर से एशियाइयोंपर। इनका वार रंगदार लोगोंपर नहीं, बल्कि केवल भारतीयोंपर है। इसलिए एक चीनी, सिवाय १८९६ के कानून १८ के अन्तर्गत आनेवाले प्रतिबन्धोंके, नेटालमें व्यापार करनेको स्वतंत्र है, परन्तु भारतीय ऐसा नहीं कर सकता। जूलू लोगोंपर किसी प्रकारका प्रतिबन्ध नहीं है, और हमारा खयाल है कि यह सर्वथा उचित ही है। परन्तु किसी भी भारतीयको, चाहे वह नेटालमें ही क्यों न जन्मा हो, एक नियत तारीखके पश्चात् अपना कारोबार हरगिज नहीं चलाने दिया जायेगा। 'मर्क्युरी' ठीक ही जानना चाहता है कि भारतीय नाईका पेशा कर सकता है या नहीं। और यदि कर सकता है, तो फिर केवल यूरोपीय परचूनियों या आम दूकानदारोंको ही संरक्षण क्यों दिया जाता है?

परन्तु प्रस्तावित विधेयककी तफसीलको देखना उसे समझ लेना नहीं है। उसे ठीक तरह समझनेके लिए यह आवश्यक है कि सतहके नीचे उतरकर नजर डाली जाये। अर्थ यह निकलता है कि नेटाल सरकार इस विधेयकको प्रस्तुत करके भारतीयोंके प्रति अपनी नीति व्यक्त कर रही है। उसकी रायमें उपनिवेशको पूरा हक है कि वह भारतीयोंको निकाल बाहर करें, उन्हें ब्रिटिश प्रजा न माने और अपने साम्राज्यीय दायित्वोंकी परवाह किये बिना उनके साथ चाहे जैसा व्यवहार करता रहे। किपलिंगके शब्दोंमें नौकर मालिक हो जानेवाला है। नेटाल उपनिवेश अपने घरका स्वामी हो जाये, इतना ही पर्याप्त नहीं है, वह तो साम्राज्य सरकारपर भी अपना हुक्म जताना चाहता है। क्योंकि हम इस बातसे बिलकुल असहमत हैं कि विधेयकमें भारतीयोंके साथ जैसे व्यवहारका प्रस्ताव किया गया है वह स्वशासित उपनिवेशोंके अधिकारोंका किसी भी हालतमें एक अंग बन सके। और नेटाल जो करना चाहता है। सो आखिरकार वही है जिसकी अधिकांश ब्रिटिश उपनिवेश नकल करना चाहेंगे।

तब भारत क्या करेगा? यदि भारत सरकार अपनी जिम्मेदारीको सचाईके साथ निबाहना चाहती है तो उसका कर्तव्य स्पष्ट है। वह भारतीय प्रवासियोंको पूर्वग्रहकी वेदीपर चढ़ते और बरबाद होते नहीं देख सकती। भले ही वह अपना फर्ज न समझे, भारतकी जनताका यह स्पष्ट कर्तव्य है कि वह जागृत होकर अपने समुद्र-पारके बन्धुओंके हितोंकी रक्षा करे। भारतके गाँव-गाँवको उपनिवेशके अपने प्रवासी भाइयोंके साथ किये जानेवाले क्रूर अन्यायके विरुद्ध अपना तिरस्कार व्यक्त करना चाहिए।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १६-५-१९०८