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जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

हैं कि एक तो वह गोरोंका मत और दूसरे भारतीयोंका बल जान ले। यदि भारतीय चुप रहें या थोड़ा-सा ही जोर लगायें तो फिर आगे उनपर अधिक दबाव डाला जा सकता है। हमें तो नेटाल-सरकारका उद्देश्य यही जान पड़ता है।

इसका अर्थ यह है कि नेटालके भारतीयोंको न केवल इन विधेयकोंका विरोध करना है, बल्कि विधेयकोंमें निहित सिद्धान्तका भी विरोध करना है। अर्थात् बकरा न रहकर सिंह बनना है। अपनी नींद छोड़कर जागना है। व्यापारियों और अन्य लोगोंको केवल व्यापार कर लेनेसे ही सन्तोष नहीं मान लेना चाहिए; बल्कि सच्ची शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। उन्हें स्वयं शिक्षा लेकर अपने बच्चोंको भी तैयार करना है। इस प्रकार जब भारतीय सब दृष्टियोंसे कुशल हो जायेंगे तभी वे सावधान बनेंगे; और जब सावधान बनेंगे तभी शेर बनेंगे। उपाय हमारे हाथमें है, "जो बोलेगा, उसीके बेर बिकेंगे।"

[ गुजरातीसे ]इंडियन ओपिनियन, १६-५-१९०८

१३६. जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

आन्तर-उपनिवेशीय परिषद्[१]

कहा जाता है कि उक्त सभामें बहुत-से प्रस्ताव पास हुए हैं, किन्तु अभी उसकी कार्यवाही बिलकुल गुप्त रखी गई है। यह भी कहा जाता है कि इसमें नेटालके राजनीतिज्ञोंका हाथ है। उनका विचार यह था कि संघ (फेडरेशन) सम्बन्धी बातकी फिलहाल चर्चा नहीं की जानी चाहिए। परिषद के सभासदोंमें चुंगीके बाबत मतभेद होनेकी बात भी सुनी जाती है।

पंजीयन

स्वेच्छया पंजीयन ९ तारीखको समाप्त हो गया। अब नये प्रार्थनापत्र नहीं लिये जाते। इसलिए जिन्होंने प्रार्थनापत्र नहीं लिये, वे रह गये। अब ट्रान्सवालमें जो भारतीय अनुमतिपत्र लेकर दाखिल हो रहे हैं, उन्हें आने और स्वेच्छया पंजीयन करानेका हक है। फिर भी श्री चैमनेने यह आज्ञा निकाली है कि स्वेच्छया पंजीयनकी अवधि समाप्त हो गई, इसलिए अब जो आयेगा उसे कानूनकी रूसे अनिवार्य पंजीयन कराना पड़ेगा। यह आज्ञा दो बातें प्रकट करती है। एक तो यह कि स्वेच्छया लिया गया पंजीयन बड़ी मूल्यवान वस्तु है। दूसरा यह कि पंजीयन कार्यालय बहुत भूलें करता है और इस समय भी उसने उक्त हुक्म निकालकर भूल की हैं। इसके बारेमें जनरल स्मट्सको लिखा गया है और तार तथा टेलीफोन द्वारा बहुतसे सन्देश भी भेजे जा रहे हैं। अन्तिम रास्ता यही हो सकता है कि जो अब ट्रान्सवालमें दाखिल हों उन्हें स्वेच्छया पंजीयन करानेका हक हो और उनपर भी कानून लागू न किया जा सके। इसलिए हक रखनेवाले जो भारतीय अब ट्रान्सवालमें आयें उन्हें धैर्य रखना चाहिए और बिलकुल नहीं डरना चाहिए। यह लेख प्रकाशित होनेके पहले सम्भव है कि ऊपरका हुक्म वापस ले लिया जाये। किन्तु यदि ऐसा न हो तो यह सलाह याद

 
  1. देखिए "जोहानिसबर्गकी चिट्ठी", पृष्ठ २१८-१९।