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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। जिस तरह अन्य भूलोंमें, मोटे तौरसे देखनेपर, सत्यका कुछ आभास होता है, उसी प्रकार लौकिक नियमोंके बारेमें भी उसका कुछ आभास होता है। लौकिक नियमोंको रचनेवाले कहते हैं कि पारस्परिक भावनाको तो संयोग समझना चाहिए। और उस प्रकारकी भावनाको मनुष्यकी साधारण स्वाभाविक प्रवृत्तिको धक्का पहुँचानेवाली मानना चाहिए। किन्तु लोभ और प्रगति करनेकी इच्छा तो सदैव रहती है। अर्थात् संयोगको अलग रखकर और मनुष्यको धन-संचय करनेका यन्त्र मानकर इस बातका विचार करना है कि किस प्रकारके श्रम और किस प्रकारके लेन-देनसे व्यक्ति अधिकाधिक धनोपार्जन कर सकता है। ऐसे विचारके आधारपर सिद्धान्त बनाकर बादमें जितनी चाहे उतनी पारस्परिक भावनाका उपयोग करते हुए लौकिक व्यवहार चलाया जा सकता है।

यदि पारस्परिक भावनाकी शक्ति लेन-देनके नियमसे मिलती-जुलती हो, तो ऊपरका तर्क ठीक माना जा सकता है। [ किन्तु ] व्यक्तिकी भावना आन्तरिक बल है और लेन-देनका नियम एक सांसारिक नियम है। इसलिए दोनोंका प्रकार समान नहीं है। कोई वस्तु अमुक दिशामें जा रही हो और उसपर एक ओरसे लगातार प्रवर्तमान शक्ति तथा दूसरी ओरसे आकस्मिक शक्ति लग रही हो तो हम पहले पहली शक्तिका और बादमें दूसरी शक्तिका माप करेंगे। दोनों शक्तियोंकी तुलनासे हम उस वस्तुकी गतिका निश्चय कर सकते हैं। हमारे ऐसा कर सकनेका कारण यह है कि यहाँ लगातार प्रवर्तमान और आकस्मिक शक्तियोंका प्रकार एक ही है। किन्तु मनुष्य जातिके व्यवहारमें लेन-देनके स्थायी नियमोंकी शक्ति और पारस्परिक भावना-रूपी आकस्मिक शक्तिकी जाति जुदी-जुदी है। भावना मनुष्यपर अलग प्रकारका और अलग ढंगसे प्रभाव डालती है। इससे व्यक्तिका स्वरूप बदल जाता है। इसलिए जिस प्रकार अमुक वस्तुको गतिपर पड़नेवाली विभिन्न शक्तियोंके असरकी जाँच हम जोड़-बाकीके नियमोंके द्वारा कर सकते हैं, उस प्रकार भावनाविषयक प्रभावको जाँच नहीं कर सकते। लेन-देनके नियमोंका ज्ञान, मनुष्यकी भावनाके प्रभावकी जाँच करनेमें किसी काम नहीं आता।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १६-५-१९०८