पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 8.pdf/२७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

१३८. भाषण: ईसाई युवकसंघमें[१]

[ जोहानिसबर्ग
मई १८, १९०८ ]

"क्या एशियाई और रंगदार जातियाँ साम्राज्यके लिए खतरा हैं?" एक वाद-विवादमें इस प्रश्नके नकारात्मक पक्षको प्रस्तुत करते हुए बैरिस्टर श्री मो० क० गांधीने जोहानिसबर्गके ईसाई युवक संघ के समक्ष नीचे लिखा भाषण दिया:

रंगदार जातियाँ साम्राज्यके लिए खतरा हैं अथवा नहीं, इस तरह के प्रश्नका उठना या इस विषयपर विवाद किया जाना मुझे कुछ अजीब-सा लगता है। मेरा खयाल है कि इस तरहका प्रश्न केवल उपनिवेशोंमें अथवा, यह कहना अधिक ठीक होगा कि, केवल कुछ ही उपनिवेशोंमें खड़ा हो सकता है। एक सुव्यवस्थित समाजमें उद्यमशील और बुद्धिमान मनुष्य कदापि खतरनाक नहीं बन सकते। यदि उनमें कुछ दोष हों भी तो खुद समाज-व्यवस्था ही उन्हें ठीक कर लेगी। तथापि हम सब व्यावहारिक स्त्री-पुरुष हैं और इस अत्यन्त व्यावहारिक युगमें रहते हैं। हमें तो जैसी वस्तुस्थिति होती है उसका सामना करना ही पड़ता है। इसलिए जब उपनिवेशोंमें ऐसे प्रश्न उपस्थित हो ही जाते हैं तो निश्चय ही यह उचित है कि हम उनपर चर्चा और वादविवाद भी करें। और मेरे मतसे भविष्यके लिए यह एक शुभ चिह्न है कि ऐसे श्रोता-समुदायके समक्ष अपने विचार पेश करनेके लिए आप इस नम्र सेवकको बुला सकते हैं। दूसरा शुभ चिह्न यह है कि सभाभवन इतना अधिक भरा हुआ है। इससे प्रकट है कि प्रस्तुत विषयमें लोगोंको कितनी उत्कट दिलचस्पी है।

'रंगदार लोगों' में हम साधारणतया उन लोगोंको लेते हैं जो [ गोरों और कालोंके ] मिश्र विवाहोंसे पैदा हुए हैं। परन्तु आज हमारे सामने जो प्रश्न उपस्थित हैं उनमें ये शब्द अधिक व्यापक अर्थमें प्रयुक्त किये गये हैं; और यहाँ हम इन शब्दोंको विशुद्ध रंगदार लोगों अर्थात् एशियाई तथा अफ्रिकाके निवासियोंके अर्थमें ले रहे हैं। जैसा कि आप जानते हैं, मेरा अपना अवलोकन और अनुभव अधिकांशमें ब्रिटिश भारतीयों अथवा मेरे देश-भाइयोंतक सीमित है। परन्तु भारतीय प्रश्नका अध्ययन करते हुए, मैंने आफ्रिकियों और चीनियोंपर पड़नेवाले असरकी हदतक भी उसका अध्ययन करनेका प्रयत्न किया है। मुझे तो ऐसा लगता है कि आफ्रिकियों और एशियाइयों--दोनोंने कुल मिलाकर साम्राज्यकी सेवा ही की है। आफ्रिकी जातियोंको छोड़ दें तो दक्षिण आफ्रिकाके बारेमें हम विचार भी नहीं कर सकते। और भारतको छोड़ दें तो ब्रिटिश साम्राज्यकी कल्पना कैसे की जा सकती है? आफ्रिकियोंके बगैर दक्षिण आफ्रिका कदाचित् एक भयानक जंगल ही बच रहेगा। मैं तो समझता हूँ कि यदि यहाँपर ये देशी कौमें नहीं होतीं तो गोरे यहाँ आते ही नहीं।

इस सिलसिलेमें मुझे किपलिंगके शब्द 'गोरोंका बोझ' याद आते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि उसकी कृतियोंको बहुत गलत तौरपर समझा गया है। अब तो हमें यह भी ज्ञात हो गया है कि अधिक अनुभवके बाद खुद उसने भी अपने विचारोंमें संशोधन कर लिया है

 
  1. वाई० एम० सी० ए० ( यंग मैन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन ) ।