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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और वह अब ऐसा नहीं मानता कि रंगदार कौमें साम्राज्यके लिए खतरा हैं या गोरी कौमें रंगदार कौमोंके साथ जिन्दा नहीं रह सकतीं। कुछ भी हो, उसने कहीं-कहीं यह जरूर कहा है कि गोरी कौमोंपर और विशेष रूपसे ब्रिटिश राष्ट्रपर न्यासी (ट्रस्टी) की तरह रंगदार कौमोंको सँभालनेकी जिम्मेदारी नियतिने डाल रखी है। परन्तु क्या गोरी कौमोंने रंगदार कौमोंके न्यासीका काम किया है? क्या आप अपने ही रक्षितोंको अपने लिए भयकी वस्तु मानेंगे? दक्षिण आफ्रिका और अन्य उपनिवेशोंमें भी अधिकतर लोग रंगदार लोगोंसे बहुत चिढ़ने लग गये हैं। इसलिए प्रत्येक सुविचारशील स्त्री और पुरुषको चाहिए कि वह अच्छी तरह सोचे-समझे बिना यह विचार न बना ले कि रंगदार कौम कोई खतरेकी चीज हैं और इसलिए उनसे जितनी जल्दी बने पिंड छुड़ा लेना चाहिए।

इधर कुछ दिनोंसे हम दोनों कौमोंको अलग-अलग रखनेकी नीतिकी बात सुनने लगे हैं। मानो मनुष्य समाजोंके बीच लक्ष्मण-रेखा खींच रखना सम्भव हो। कैप्टन कुकने इस सम्बन्धमें अखबारोंमें[१] कुछ लेख लिखे हैं। उन्होंने मुझसे भी इस विषयमें चर्चा करनेका कष्ट किया है। वे कौमोंको अलग-अलग रखनेकी नीतिका प्रतिपादन करते हैं। मैंने उनसे निःसंकोच कह दिया कि पिछले १४ वर्षोंके अनुभव और अध्ययनके आधारपर मैं कह सकता हूँ कि अगर पूर्व आफ्रिकाके कुछ भागों में केवल रंगदार कौमोंको अथवा एशियाइयोंको बसानेकी बात हो तो वह सफल नहीं होगी। आप एशियाइयोंको संसारके केवल एक ही हिस्सेमें किस तरह कैद करके रख सकेंगे? जमीनके जो भाग आप उनके लिए नियत कर देंगे, और जो गोरी कौमोंके बसने के लिए अनुकूल न होंगे, वहाँ रहनेको क्या रंगदार कौमें राजी हो जायेंगी? निःसन्देह इस तरहके रंग-भेदका मुझे तो कभी कोई औचित्य नहीं दिखाई दिया है। श्री चेम्बरलेनके शब्दों में शिक्षाके अभाव, अपराधवृत्ति अथवा ऐसे ही किसी अन्य आधारपर फर्क किया जा सकता है। तब भारतीयोंको अलग बसानेकी माँग नहीं उठेगी। परन्तु वर्तमान सभ्यतासे --बल्कि यह कहें कि पश्चिमी सभ्यतासे--दो विचारसूत्र निकले हैं, जो लगभग जीवन-सिद्धान्त बन गये हैं। मैं उन दोनोंको गलत मानता हूँ। वे हैं--"जिसकी लाठी उसकी भैंस" और "योग्यतम ही सुरक्षित रह सकता है।" जिन्होंने इन दोनों कहावतोंको चलाया है उन्होंने उनको एक अर्थ भी प्रदान कर दिया है। हमारे लेख बल (लाठी) का क्या अर्थ हो सकता है सो मैं नहीं बताना चाहता; परन्तु निश्चय ही उनका तो यहाँ मतलब है कि शरीर-बल ही बल और वही सत्य और सर्वोपरि है। कुछ लोगोंने शरीर-बलके साथ बौद्धिक बलको भी जोड़ दिया है। परन्तु मैं इन दोनोंके स्थानपर हृदय-बलको रखूँगा, और कहूँगा कि जिसके पास हृदय-बल है उसकी बराबरी निरे शरीर-बल या बुद्धि-बलवाले कभी नहीं कर सकते। केवल बौद्धिक अथवा शारीरिक-बल, आत्मिक-बल अथवा, रस्किनकी भाषामें, 'पारस्परिक भावना' पर कभी विजय नहीं पा सकता। जागृत-चेतन मन तो केवल हृदयसे--आत्मिक-बलसे ही प्रभावित होता है।

पश्चिमी और पूर्वी सभ्यताके बीच यही तो अन्तर है। मैं जानता हूँ कि मैं बहुत नाजुक विषयपर बोल रहा हूँ जो शायद खतरनाक भी है। अभी-अभी लॉर्ड सेलबोर्न जैसे बड़े आदमीने हमारे सामने यह भेद रखा।[२] किन्तु अत्यन्त नम्रता और आदरके साथ मैं उनसे

 
  1. देखिए "जोहानिसबर्गकी चिट्ठी", पृष्ठ २३१-३२।
  2. देखिए "लॉर्ड सेलबोर्नके विचार", पृष्ठ १६२-६३।