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भाषण: ईसाई युवक संघमें

अपना मतभेद प्रकट करना चाहता हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि पश्चिमी सभ्यता विनाशक है और पूर्वी सभ्यता विधायक है। पश्चिमी सभ्यता केन्द्रसे दूर ले जानेवाली और पूर्वी सभ्यता केन्द्रकी तरफ ले जानेवाली है। इसलिए पश्चिमी सभ्यता तोड़नेवाली और पूर्वी सभ्यता जोड़ने वाली है। मैं यह भी मानता हूँ कि पश्चिमी सभ्यताका कोई लक्ष्य नहीं है और पूर्वी सभ्यताके सामने सदा लक्ष्य रहा है। मैं पश्चिमी सभ्यता और ईसाई प्रगतिको एक नहीं मानता और न उन दोनोंका मिश्रण ही कर रहा हूँ। आज हमारे संसारमें तार-प्रणाली फैल गई है, बड़े-बड़े जहाज चल रहे हैं और फी घंटा पचास या साठ मीलकी गतिसे रेलगाड़ियाँ दौड़ रही हैं। इन्हें में ईसाई प्रगतिका प्रतीक नहीं मान सकता। परन्तु यह पश्चिमी सभ्यता जरूर है। मैं यह भी मानता हूँ कि पश्चिमी सभ्यता बेहद क्रियाशीलताका प्रतीक है। पूर्वी सभ्यता चिन्तन-मननका प्रतिनिधित्व करती है। पर वह कभी-कभी निष्क्रियताका प्रतिनिधित्व भी करती है। फिलहाल मैं जापानकी बात छोड़ देता हूँ। परन्तु भारतके और चीनके लोग चिन्तन में इतने डूब गये कि वे असली तत्त्वको भूल गये। वे भूल गये कि एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रकी तरफ अपनी शक्ति लगानेमें उन्हें आलस्यसे, प्रमादसे, बचना चाहिए था। इसका परिणाम यह हुआ है कि ज्यों ही इनके सामने कोई विघ्न आकर खड़ा हुआ, वे हिम्मत छोड़कर बैठ गये। इसलिए यह जरूरी है कि वह सभ्यता पश्चिमकी सभ्यताके सम्पर्कमें आये। उसके अन्दर पश्चिमी सभ्यताका जोश और उत्साह आये। उसका एक लक्ष्य है, इसलिए ज्यों ही उसके अन्दर यह चीज आ जायेगी, मुझे जरा भी सन्देह नहीं कि वह प्रमुखता प्राप्त कर लेगी। मेरा खयाल है और आप भी आसानी से समझ लेंगे कि जिस सभ्यता या अवस्थामें सारी शक्तियाँ केन्द्रसे दूर भागती हैं उसके सामने कोई लक्ष्य नहीं हो सकता। इसके विपरीत जहाँ शक्तियाँ केन्द्रकी तरफ जाती हैं वहाँ लक्ष्य तो होता ही है। इसलिए यह जरूरी है कि ये दोनों सभ्यताएँ आपसमें मिलें। अगर ऐसा हुआ तो इससे एक नई शक्तिका जन्म होगा। और यह शक्ति निश्चय ही भयावह नहीं होगी, अगल-अलग करनेवाली नहीं होगी, जोड़नेवाली होगी। निःसन्देह ये दोनों शक्तियाँ एक दूसरेकी विरोधी हैं। परन्तु प्रकृतिकी योजनामें शायद दोनों जरूरी हैं। अब तो यह हम हृदय और आत्मावाले बुद्धि-सम्पन्न मनुष्योंका काम है कि हम देखें कि ये दोनों शक्तियाँ क्या हैं। और फिर इनका हमें उपयोग कर लेना चाहिए--आँखें मूँदकर नहीं, बल्कि बुद्धि और चतुराईके साथ। जैसे-तैसे नहीं, बल्कि एक लक्ष्यको सामने रखकर। इतना होते ही इन दोनों सभ्यताओंका मिलन होनेमें कोई कठिनाई नहीं रहेगी और यह मिलन कल्याणकारी होगा।

मैं कह चुका हूँ कि आफ्रिकाकी कौमोंने निश्चित रूपसे साम्राज्यकी सेवा की है। और मैं मानता हूँ कि इसी प्रकार एशियाकी कौमोंने, बल्कि ब्रिटिश भारतीयोंने भी, साम्राज्यकी सेवा की है। क्या ब्रिटिश भारतीय साम्राज्यके लिए अनेक युद्धोंमें नहीं लड़े हैं? इसके अतिरिक्त जिस कौमके जीवनका आधार ही धर्म है वह किसीके लिए खतरा नहीं हो सकती। और बेचारी आफ्रिकाकी कौमोंसे तो डरनेका कारण ही क्या हो सकता है? वे तो अभी बहुत पिछड़ी हुई हैं। संसारमें उन्हें तो अभी बहुत कुछ सीखना है। वे शरीरसे शक्तिशाली हैं और बुद्धिमान भी हैं, इसलिए साम्राज्यके लिए ये कौमें एक निधि ही हो सकती हैं। इस बातमें मैं श्री क्रेसवेलसे सहमत हूँ-–कि उनकी रक्षा नहीं की जानी चाहिए। हम नहीं चाहते कि किसी भी प्रकार या किसी भी रूपमें उनकी रक्षा की जाये। परन्तु मैं यह जरूर