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भाषण: ईसाई युवक संघमें

रहा हूँ। इसके विपरीत मैं तो हमेशा कहता आया हूँ---और ब्रिटिश भारतीय इसे स्वीकार करते हैं---कि उपनिवेशमें प्रवेश सम्बन्धी नियन्त्रण भले ही रहें परन्तु वे रंगके आधारपर कभी न हों। और जिस किसीको भी उपनिवेशके अन्दर आनेकी आप इजाजत दें, उसे वे सब अधिकार होने चाहिए, जो इस देशके अन्दर रहनेवाले आदमीको होते हैं। उसे राजनीतिक अधिकार हों या नहीं, यह एक जुदा सवाल है। मैं आज यहाँ राजनीतिक प्रश्नकी चर्चा करनेके लिए नहीं आया हूँ। परन्तु वह स्वतन्त्रतापूर्वक रह सकेगा या नहीं, स्वतन्त्रतापूर्वक घूम सकेगा या नहीं; अथवा जमीन रख सकेगा या नहीं; ईमानदारीके साथ स्वतन्त्रता- पूर्वक व्यापार कर सकेगा या नहीं-–इन विषयोंमें दो रायें नहीं होनी चाहिए।[१] अंग्रेजों और भारतीयोंका एक साथ आ बसना एक ईश्वरीय योजना ही समझिए। मैं एक बात और कह दूँ---और मैं इसे सच मानता हूँ कि अंग्रेजोंने भारतपर कोई परोपकारकी भावनासे अधिकार नहीं किया। उसमें उनका स्वार्थ था और उसमें अक्सर बेईमानीसे भी काम लिया गया। परन्तु प्रकृतिके नियमोंको हम समझ नहीं पाते। वह अक्सर मनुष्यके किये-धरेको उलट देती है और बुराईके अन्दरसे भलाई पैदा कर देती है। अंग्रेजों और भारतीयोंका जो साथ हुआ उसके बारेमें भी मेरी यही राय है। मैं मानता हूँ कि इन दोनों कौमोंको--अंग्रेज और भारतीय--केवल उनके अपने भले के लिए नहीं बल्कि संसारके इतिहासपर कोई असर छोड़नेके लिए जोड़ा गया है। अपने इस विश्वासके कारण मैं यह भी मानता हूँ कि मेरी भलाई भी इसी में है कि मैं साम्राज्यका एक वफादार प्रजाजन बनूँ, न कि किसी पराधीन कौमका सदस्य; क्योंकि मैं विश्वास करता हूँ कि अगर कहीं कोई जातियाँ पराधीन हों भी, तो उन्हें ऊपर उठाकर, स्वतन्त्र संस्थाएँ प्रदान करके, पूर्णतः स्वतन्त्र मनुष्य बनाकर अपने समान बना लेना अंग्रेज जातिका ध्येय है। अगर साम्राज्यका और अंग्रेज जातिका सचमुच यही ध्येय है तो क्या यह उचित नहीं कि करोड़ों मानव प्राणियोंको स्वशासनका शिक्षण दिया जाये? जरा भविष्यपर नजर डालकर देखिए कि विभिन्न जातियाँ एक दूसरेके अन्दर घुल-मिल रही हैं और एक ऐसी सभ्यताको जन्म दे रही हैं, जैसी संसारने अबतक कभी नहीं देखी है। क्या आनेवाली पुश्तोंके लिए हमें ऐसी ही विरासत नहीं छोड़ जाना है? निस्सन्देह कठिनाइयाँ और गलतफहमियाँ भी हैं। परन्तु इस पवित्र भजनके शब्दोंमें मेरा पूरा विश्वास है कि, "कुहरा छँट जानेपर हम एक-दूसरेको अधिक अच्छी तरह समझ सकेंगे।"

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ६-६-१९०८
१३-६-१९०८
 
  1. देखिए खण्ड ६ पृष्ठ २६७।