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जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

जनरल स्मट्सका जवाब

जनरल स्मट्सने इसका निम्नलिखित उत्तर[१] भिजवाया:

आपका पत्र मिला। जनरल स्मट्स कहते हैं कि आप समझौतेका जो अर्थ लगाते हैं वह ठीक नहीं है। इसके बाद आनेवाले भारतीयोंको अनिवार्य पंजीयन कराना चाहिए। इसलिए जनरल स्मट्सको आशा है कि आप अपने प्रभावका उपयोग करके अब आनेवाले भारतीयोंको पंजीयन करानेकी बात समझायेंगे।

श्री गांधीका जवाब

इसके जवाबमें श्री गांधीजीने निम्नानुसार[२] लिखा:

जनरल स्मट्सका प्रत्युत्तर

उत्तर नीचे लिखे अनुसार है:[३]

आपका पत्र मिला। पुनर्विचार करनेपर भी जनरल स्मट्स अपने निर्णयको बदलनेमें असमर्थ हैं।

इस उत्तरको हम भयंकर मानते हैं और इसके कारण हमें अपने साथ धोखा किये जानेका शक होता है। अभी जो दस-बीस भारतीय देशसे आये हैं, उनका स्वेच्छया पंजीयन न किया जाये, तो कोई बात नहीं है। उसके कारण घबरानेकी जरूरत नहीं है। किन्तु भय यह है कि इसकी जड़ कहीं और गहरी न हो। अभी खूनी कानूनका रद होना बाकी है; उसे रद किया जाना चाहिए। यदि वह कानून रद न किया गया, तो परिणाम खराब होगा। हम जिस हालतमें थे, उसीमें बने रहेंगे। श्री गांधीने जनरल स्मट्सको स्पष्ट लिखा था; उसके बदलेमें संक्षिप्त और टका-सा जवाब मिला कि माँग स्वीकार नहीं की जायेगी। कानून रद होगा या नहीं, आदि सब बातें छोड़ दी गई हैं।

कार्टराइटसे मुलाकात

सारे समझौतेमें श्री कार्टराइट मध्यस्थ हैं, इसलिए नुकसानका कोई अन्देशा नहीं है। श्री कार्टराइट विश्वसनीय व्यक्ति हैं, इसलिए ऐसा भरोसा किया जा सकता है कि वे पूरी कोशिश करेंगे। यदि जनरल स्मट्स तब भी न मानें तो क्या होगा, इस प्रश्नका जवाब ट्रान्सवालके भारतीयोंको साहसके साथ देना पड़ेगा। श्री कार्टराइटसे श्री गांधीने मुलाकत की है, और उन दोनोंनें[४] जनरल स्मट्ससे मिलना तय किया है। बहुत-कुछ इसके नतीजेपर निर्भर है।

यह समझौता कैसा?

किन्तु यदि यही ठहरे कि सरकारने दगा की है तो फिर प्रश्न किया जा सकता है कि यह समझौता कैसा? फिर भी जो सत्याग्रह संघर्षको जानते हैं, वे प्रश्न नहीं करते।

८-१६
 
 
  1. और
  2. पत्रके पाठके लिए देखिए "पत्र: ई० एफ० सी० लेनको ", पृष्ठ २२४-२५।
  3. ये पत्र जनरल स्मट्सके निजी सचिवने लिखे थे।
  4. यहाँ मूल स्पष्ट नहीं है कि क्या कार्टराइट भी स्मट्ससे मिलनेवाले थे क्योंकि जब जून ६, १९०८ को गांधीजी जनरल स्मट्ससे मिले तब श्री कार्टराइट उनके साथ नहीं थे। देखिए "जोहानिसबर्ग की चिट्ठी", पृष्ठ २८८।