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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कहा जाता है कि श्री ईसप मियाँने श्री गांधीपर किये गये हमलेके बारेमें गवाही दी, इसलिए पठानोंने उसका बदला लेनेका भी निश्चय किया और लिया भी।

यदि ऐसा ही हो तो बड़े दुःखकी बात है। उकसानेवाले जो खास-खास पठान हैं वे स्वयं सामने नहीं आते और दूसरोंको भेज देते हैं। इसे मैं कायरताकी निशानी मानता हूँ। यदि कोई आदमी न्यायकी दृष्टिसे सच्ची गवाही दे, तो उसे मारना नामर्दी कहलायेगी।

मैं आशा करता हूँ कि सभी पठान इसी विचारके नहीं हैं। उनमें से जो लोग चतुर हैं उन्हें चाहिए कि वे उपद्रवी तत्त्वोंको शान्त करें। मैं निर्दोष मनुष्यके ऊपर हाथ उठानेमें बहादुरी नहीं देखता।

पठान लड़नेवाले कहे जाते हैं। वे शरीरसे मजबूत होते हैं। लड़नेवाले मजबूत आदमीका काम निःशस्त्र और कमजोर व्यक्तिको मारना नहीं है, बचाना है। इस बातको समझना कठिन नहीं है। बराबरीवालेसे दो-दो हाथ करनेमें तो कुछ बहादुरी है, किन्तु किसी व्यक्तिको पीछेसे मारना बहादुरी नहीं है, सो तो कोई भी कहेगा।

यदि पठान यही सोचते हों कि वे इस तरह गरीब भारतीयोंको त्रस्त कर सकेंगे, तो यह उनकी भूल है। आज नहीं, तो कल भारतीय समाजका साहस बढ़ जायेगा और वह अपना बचाव करेगा। बचाव दो रीतियोंसे हो सकता है। उत्तमसे उत्तम बचाव तो यही है कि बिलकुल बचाव न किया जाये और हिम्मतसे हमलेको सहन किया जाये। हम सदा यह देखते हैं कि जिसके विरुद्ध हम जोर करते हैं, उसकी ओरसे यदि तनिक भी जोर न लगाया जाये तो हमारा जोर व्यर्थ हो जाता है। हम सब जानते हैं कि हवामें मुक्का मारनेवालेका हाथ झटका खा जाता है। रस्सीको झुकानेमें कोई ताकत नहीं लगानी पड़ती। यदि हम उसे लकड़ी समझकर लकड़ी झुकानेके बराबर जोर लगायें, तो हाथपर कुछ-न-कुछ चोट पहुँचेगी। जो मुझे गाली देता है, यदि मैं उसको उलटकर गाली न दूँ तो वह चुप रह जायेगा; उसका मुँह थक जायेगा। इसी प्रकार मारनेवालेके बारेमें भी समझिए। किन्तु मेरी मान्यता है कि ऐसे विचार और ऐसी सहनशक्ति व्यक्तिमें एकदम नहीं आ सकती। मार खाकर चुप बैठने के लिए मेरी समझमें अधिक साहस चाहिए।

इसके पहले कि ऐसी शक्ति प्राप्त हो, मनुष्यमें अपना बचाव करनेकी ताकत होना आवश्यक है। लाठी अथवा किसी दूसरे उपायसे बचाव करना सीख लेना मुश्किल नहीं है। मुख्य बात तो निर्भयता है। मारसे भय न मानना और यदि कोई हमें लाठीसे मारे, तो उसे रोकने योग्य लाठी उठानेकी ताकत हममें होनी चाहिए। इसमें बलकी अपेक्षा कलकी अधिक जरूरत है। भारतमें भी हमारी ऐसी ही स्थिति है; हम कायर हो बैठे हैं। कायरताके मारे मार खाकर बैठनेकी हिम्मत नहीं है; और लाठी उठानेसे भी डरते हैं। ये दोनों बातें ठीक नहीं हैं। जबतक इस प्रकारकी कायरता नहीं जाती, तबतक हम साहसी नहीं बन सकते। इसलिए मेरी साग्रह सलाह है कि सच्ची हिम्मत पैदा की जाये; और फिर जो हमले होते हैं उन्हें बिलकुल निडर होकर सहन किया जाये। मारके डरसे अपना कर्त्तव्य करनेमें डरना नहीं चाहिए। किन्तु यदि ऐसा साहस उत्पन्न न हो, तो लाठी पास रखें और अपना बचाव करनेके लिए तैयार रहें।

यह भी सत्याग्रहका एक अंग है। सत्याग्रही मृत्यु तक अपने सत्यको नहीं छोड़ता। यदि हम सत्याग्रही होना चाहते हैं तो हमें जरूरत पड़नेपर सरकार अथवा अपने समाजके