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सम्पूर्ण गांधी वाड़्मय

उपयोग नहीं हो सकते। तथापि आजके लौकिक व्यवहार चलानेवाले शास्त्री[१] उपर्युक्त व्यायाम-विशारदके जैसा ही करते हैं। उनके हिसाबसे मनुष्य केवल शरीर--यन्त्र--मात्र है और वे ऐसा मानकर नियम बनाते हैं। उसमें जीव है, सो वे जानते हैं; फिर भी उसकी गिनती नहीं करते। ऐसा शास्त्र, ऐसे मनुष्यपर भला कैसे लागू हो सकता है, जिसमें जीव, आत्मा या रूह प्रधान है?

अर्थशास्त्र कोई शास्त्र नहीं है। जब हड़तालें होती हैं तब वह बेकार साबित होता है, यह हम स्पष्ट रूपसे देख सकते हैं। वैसे अवसरोंपर मालिक एक तरहसे सोचते हैं और मजदूर दूसरी तरहसे। लेन-देनका एक भी नियम लागू नहीं किया जा सकता। लोग माथा-पच्ची करके यह सिद्ध करना चाहते हैं कि मालिक और मजदूरके स्वार्थकी दिशा एक ही है। [ लेकिन ] वे इस विषयमें कुछ नहीं समझते। हकीकत यह है कि एक-दूसरेका, दुनियादारीका, रुपये-पैसेका स्वार्थं एक ही न होते हुए भी लोगोंको आपसमें विरोधी बनने या वैसे बने रहने की जरूरत नहीं है। किसी घरमें भुखमरी हो, और यदि उस घरमें माँ और उसके बच्चे हों, उनके पास रोटीका एक टुकड़ा ही हो, और दोनोंको भूख लगी हो, तो इसमें माँ और बच्चोंका स्वार्थ परस्पर प्रतिकूल है। माँ खाती है तो बच्चे भूखों मरते हैं और बच्चे खाते हैं तो माँ भूखी रह जाती है। फिर भी माँ और बच्चोंमें कोई अन्तर नहीं है। माँ अधिक ताकतवर है इसलिए ऐसा नहीं होता कि वह रोटीका टुकड़ा खुद खा ले। इसी प्रकार मनुष्योंके पारस्परिक सम्बन्धोंके बारेमें भी समझना चाहिए।

यदि ऐसा मान लें कि मनुष्यों और पशुओंमें कोई अन्तर नहीं है, हमें पशुओंकी तरह अपने स्वार्थके[२] लिए लड़ना ही चाहिए तो भी हम नियमके तौरपर ऐसा नहीं कह सकते कि मालिक और मजदूरमें सदा विरोध रहेगा या सदा विरोध नहीं रहेगा। स्थितिके अनुसार उस मनोवृत्तिमें अन्तर पड़ता रहता है। जैसे, काम अच्छा होना चाहिए और मजदूरी पूरी मिलनी चाहिए--इसमें तो दोनोंका स्वार्थ है। किन्तु लाभके भागकी जाँच करनेपर सम्भव है एक मुनाफेमें रहा हो और दूसरा घाटेमें। इतनी कम मजदूरी देनेसे कि नौकर बीमार और कमजोर हो जाये, मालिकका स्वार्थ नहीं सधता और यदि कारखाना ठीक ढंगसे न चल पा रहा हो और फिर भी नौकर अधिक मजदूरी माँगे तो इससे नौकरका स्वार्थ नहीं सकता। यदि मालिकके पास यन्त्रके पहिये दुरुस्त करवानेके लिए पैसे न हों तो नौकरका पूरा या कुछ भी वेतन माँगना स्पष्ट रूपसे अनुचित माना जायेगा।

इस प्रकार हम देखते हैं कि लेन-देनके नियमोंके आधारपर यह शास्त्र लागू नहीं किया जा सकता। ईश्वरीय नियम ही ऐसा है कि आर्थिक हानि-लाभके नियमोंके द्वारा मनुष्यका व्यवहार संचालित नहीं होना चाहिए। उस व्यवहारका आधार तो न्यायके नियमोंपर है। अर्थात् मनुष्यको हवाका रुख देखकर नीतिसे अथवा अनीतिसे अपना काम निकालनेका विचार एकदम छोड़ देना चाहिए। अमुक रीतिसे चलनेपर आखिर में क्या होगा, सो कोई सदा नहीं कह सकता। किन्तु इतना तो हम प्रायः सदा ही जान सकते हैं कि अमुक कार्य न्यायपूर्ण है अथवा अन्यायपूर्ण। फिर, हम यह भी कह सकते हैं कि नीतिके मार्गपर चलनेका परिणाम अच्छा ही होना चाहिए। यह परिणाम क्या होगा और कैसे निकलेगा, सो हम नहीं बतला सकते।

 
  1. अर्थात् 'अर्थशास्त्री'।
  2. मूलमें "सर्वसामान्य स्वार्थ" है।