पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 8.pdf/२९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पल्टन और उसके सरदारकी मिसाल लीजिए। अगर कोई सरदार अर्थ- शास्त्रके नियम लागू करके अपनी पल्टनके सिपाहियोंसे काम लेना चाहेगा तो वह उनसे मनचाहा काम न ले पायेगा। अनेक मिसालोंमें ऐसा देखनेमें आता है कि जो सरदार अपनी पल्टनके सिपाहियोंके सम्पर्कमें आता रहता है, उनके साथ दयालुताका बरताव करता है, उनका भला होनेसे प्रसन्न होता है, उनके दुःखमें भाग लेता है, उनकी रक्षा करता है, संक्षेपमें उनके प्रति सहानुभूति रखता है--ऐसा सरदार अपने सिपाहियोंसे चाहे जैसा मुश्किल काम ले सकता है। ऐतिहासिक मिसालोंसे पता चलता है कि जहाँ सिपाही अपने सरदारको नहीं चाहते वहाँ लड़ाई शायद ही जीती गई है। इस प्रकार सिपाहियों और उनके सरदारके बीच सहानुभूतिकी शक्ति ही सच्ची शक्ति है। उसी प्रकार डाकुओंके गरोहमें भी सरदारके प्रति डाकुओंका दल पूरा प्रेम-भाव रखता है। फिर भी मिल इत्यादि कारखानोंमें मालिक और नौकरोंके बीच इतना प्रगाढ़ सम्बन्ध देखनेमें नहीं आता। इसका एक कारण तो यह है कि इस प्रकारके कारखानोंमें नौकरोंके वेतनका आधार लेन-देनके नियमोंपर रहा करता है। इसलिए मालिक नौकरके बीच स्नेहके व्यवहारके स्थानपर द्वेषका व्यवहार चलता है। और सहानुभूतिके स्थानपर उनके बीचका सम्बन्ध विरोधका---प्रतिस्पर्धाका सा देखनेमें आता है। तब, अब हमें दो प्रश्नोंपर विचार करना है। एक तो यह कि लेन-देनका हिसाब किये बिना नौकरका वेतन किस दर्जे तक निश्चित किया जा सकता है। दूसरा यह कि जिस तरह पुराने ढंगके कुटुम्बोंमें नौकर हुआ करते हैं और मालिक तथा नौकरोंके बीच जैसा सम्बन्ध रहता है, अथवा पल्टनमें सरदार और सिपाहियोंमें जैसा सम्बन्ध रहता है, उसी तरह कारखानोंमें नौकरोंकी अमुक संख्या--चाहे जैसा गाढ़ा समय आ पड़े--कम ज्यादा किये बिना कैसे कायम रखी जा सकती है।

पहले प्रश्नका विचार करें। यह अजीब-सी बात है कि कारखानोंमें मजदूरोंके वेतनकी सीमा निर्धारित कर सकनेकी दिशामें अर्थशास्त्री लोग कोई प्रयत्न ही नहीं करते। दूसरी तरफ, हम देखते हैं कि इंग्लडके प्रधानमन्त्रीके पदका नीलामके द्वारा विक्रय नहीं किया जाता; वह चाहे जैसा भी मनुष्य क्यों न हो उसे एक जैसा वेतन ही मिलता है। उसी प्रकार कमसे-कम वेतन लेनेवालेको पादरी नहीं बनाया जाता। चिकित्सकों और वकीलोंके साथ भी साधारणतया ऐसा व्यवहार नहीं किया जाता। अर्थात् हम देखते हैं कि उपर्युक्त दृष्टान्तोंमें हम अमुक सीमाके अनुसार ही मजदूरी देते हैं। तब कोई पूछेगा कि क्या अच्छे और खराब मजदूरको मजदूरी समान हो? वास्तवमें ऐसा ही होना उचित है। इसका परिणाम यह निकलेगा कि जिस प्रकार चिकित्सकों और वकीलोंकी फीस एक-सी होनेके कारण हम अच्छे वकील अथवा चिकित्सकके पास ही जायेंगे, वैसे ही मजदूरोंकी दर एक-सी होने के फलस्वरूप हम अच्छे राज या बढ़ईके पास ही जायेंगे। अच्छे मजदूरका इनाम यही है कि उसे पसन्द किया जायेगा। इसलिए कुदरती और सही नियम यही हुआ कि सब वर्गोंमें उस उस वर्गके कामके अनुसार वेतन नियत करना चाहिए। जहाँ अपने धन्धेका ज्ञान न रखनेवाला व्यक्ति कम पारिश्रमिक लेकर मालिकको धोखेमें डाल सकता है वहाँ अन्तमें नतीजा बुरा ही निकला करता है।

अब दूसरा प्रश्न लीजिए। वह यह है कि व्यापारकी स्थिति चाहे जैसी हो फिर भी कारखानेमें जितने मजदूरोंको शुरूमें रखा गया हो उतनोंको कायम रखना ही चाहिए। जब