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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कानून रद करनेकी बात थी; उसका क्या हुआ? श्री गांधीके शब्द कहाँ गये? अब वे क्या जवाब देंगे? वे भारतीयोंको क्या मुँह दिखायेंगे? ऐसी बातोंकी भनक मेरे कानोंमें पड़ती रहती है।

कानून रद होगा, यह तो मैं अब भी कहता हूँ। किन्तु शर्त यह है कि भारतीय समाज अपना सत्याग्रह पूरा करे। मेरे शब्द जैसे थे, वैसे ही हैं। यह भी नहीं कि अपने भाइयोंको मुँह दिखाते हुए मुझे शर्म आती है। जिस दिन मैं स्वयं दगा दूँगा, शर्मकी बात उसी दिन होगी। दगा किसीका सगा नहीं होता। फिर वह श्री स्मट्सका सगा भी नहीं होगा। मैंने कहा था कि लिखा हुआ कागज है,[१] इसमें भी कोई शक नहीं है। अब श्री स्मट्स यदि उस कागजका कोई उलटा जवाब दें, तो उसके लिए मैं दोषी नहीं ठहरता।

उस समय बहुतसे भारतीयों और गोरोंने जो चेतावनी दी थी वह याद आती है। वे कहते थे, "जनरल स्मट्सपर भरोसा मत करना।" मैंने कुछ हद तक विश्वास किया। उसके बिना काम ही नहीं चल सकता। राजकाजसे सम्बन्धित काम इसी तरह चले हैं, और चलेंगे। जब समझौता करनेवाले दोनों पक्षोंको अपनी शक्तिकी प्रतीति होती है, तब एक-दूसरेके साथ किया हुआ धोखा काम नहीं आता। मैं मानता हूँ कि भारतीय समाजकी शक्ति---सत्य। सचके सामने जनरल स्मट्सका झूठ नहीं टिकेगा।

जो मुझे दोष देते थे उनसे मेरा इतना ही कहना है कि "यदि आपका दोषारोपण ठीक था, तो आप फिर सत्याग्रहमें शामिल हों। मैंने तो विश्वास रखकर ही स्वेच्छया पंजीयन करानेकी सलाह दी थी। कानून रद होना ही चाहिए, यह तो हमारा प्रण था; और उसे सत्य करनेके लिए आप और मैं लड़े, और लड़ेंगे। यदि आपने इतना किया तो काफी है। आपका सन्देह ठीक निकला। यह आपके लिए शाबाशीकी बात हुई। मेरा विश्वास झूठा निकला, मैं इसके लिए अपनेको अपराधी नहीं मानता, क्योंकि मेरे सामने दूसरा कोई उपाय नहीं था। यदि आप ऐसा मानें कि उपाय था तो भी भारतीय कौमने विश्वास रखकर कुछ खोया नहीं है। यदि हम सब साथ रहें तो और भी चीजें प्राप्त करेंगे।"

समझौतेके बारेमें जो मेरे अनुकूल रहे और जिन्होंने समझौता पसन्द किया था, उनसे मेरा यह कहना है कि "जनरल स्मट्स दगा देनेपर उतारू हुए हैं, इससे समझौतेको दोष देना ठीक नहीं। समझौतेसे फायदा ही हुआ है। यदि हममें सच्चा सामर्थ्य होगा, तो हम अँगुलभर भी पीछे न हटेंगे और विरोधी जैसे-जैसे दगा करेंगे वैसे-वैसे हमारा सत्य और चमकेगा। जब हीरा कंकड़ोंके बीचमें पड़ जाता है, तब उसका तेज और अधिक खिलता है। सत्यके बारेमें भी यही समझना चाहिए।" मुझसे नाराज होनेवाले और मेरे कामको पसन्द करनेवाले, दोनों ही, इस समय सत्याग्रहमें सम्मिलित रहें या न रहें, मेरा निश्चय तो जो पहले था, वही है। मैं कभी खूनी कानूनको नहीं मानूँगा और अकेला रह गया, तो भी मरते दम तक जूझूँगा। मैं आशा करता हूँ कि खुदा---ईश्वर---सभी भारतीयोंको ऐसे ही विचार देगा।

मैं हूँ सत्याग्रही,
मोहनदास करमचन्द गांधी

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ३०-५-१९०८
 
  1. देखिए "पत्र: उपनिवेश सचिवको", पृष्ठ ३९-४१।