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जोहानिसबर्ग की चिट्ठी



मंगलवार [जून २, १९०८]

श्री हॉस्केन, श्री डोक, श्री फिलिप्स, श्री पोलक, श्री पेरी इत्यादिकी एक बैठक श्री हॉस्केनके दफ्तरमें हुई। उन्होंने उसमें भी भारतीय समाजको मदद करनेका प्रस्ताव किया। प्रिटोरियासे अभीतक कोई खबर नहीं आई।

कब्रिस्तान

कुछ समय हुआ कब्रिस्तानके मुस्लिम हिस्सेपर यहाँकी नगरपालिकाने कृपादृष्टि की है। वह हिस्सा देखनेमें बहुत बड़ा है, किसी समय वह मुसलमानोंका कब्रिस्तान माना जाता था, इसलिए मौलवियोंका मत है कि उसका उपयोग दूसरे मुर्दे गाड़नेके लिए नहीं किया जा सकता। फलतः हमीदिया इस्लामिया अंजुमनने एक पत्र लिखा कि कब्रिस्तानमें और मुर्दे नहीं गाड़े जा सकते। एक प्रतिनिधिमण्डल, जिसमें मौलवी अहमद मुखत्यार, इमाम कमाली, इमाम अब्दुल कादिर, श्री अब्दुल गनी,[१] श्री शहाबुद्दीन तथा श्री गांधी थे, पार्क कमेटीके अध्यक्षसे कब्रिस्तानके मामलेमें मिला। इसके बाद फिर सोमवारको साढ़े तीन बजे एक प्रतिनिधि मण्डल पार्क कमेटीसे मिला। उसमें श्री अब्दुल गनी, इमाम कमाली, इमाम अब्दुल कादिर तथा श्री गांधी थे। उसने सारी बात कमेटीको समझाई और कमेटीने विचार करनेका वचन दिया।

भेंटका सदुपयोग

श्री पोलकको ब्रिटिश भारतीय संघकी तरफसे पिछले संघर्षमें ५० पौंड भेंटमें दिये गये थे तथा श्री आइजकको १० पौंड। श्री पोलक तथा श्री आइजकने वह पैसा अपने लिए काममें लानेका विचार न करके भारतीय समाजके लिए ही उसका उपयोग करना निश्चित किया है। श्री पोलकने, उन्हें जो पैसा मिला था, श्री जोज़ेफ रायप्पनकी[२] मददके लिए भेज दिया है। श्री जोज़ेफ रायप्पन फिलहाल विलायतमें बीमार पड़े हैं और गरीबीके कारण उनका काम अटक गया है। श्री आइज़कने अपना पैसा भारतीयोंके शिक्षणमें लगानेका विचार करके उसीमें लगाया। श्री डोक तथा श्री डेविड पोलकको[३] जो पैसा मिला था, उसके विषयमें मैं पहले लिख चुका हूँ। उन्होंने उक्त रकम एशियाई शिक्षणके लिए निकाल रखी है। अपनेको मिलनेवाली भेंटका ऐसा उपयोग करना बहुत प्रशंसा तथा अनुकरणके योग्य है।

बुधवार [जून ३, १९०८]

आज खबर मिली है कि बहुत करके जनरल स्मट्स कानून रद कर देंगे। अभीतक सरकारकी तरफसे कोई भी खबर नहीं है। फिर भी सभी गोरे नेता इसीके बारेमें चर्चा कर रहे हैं।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ६-६-१९०८
 
  1. एक भारतीय व्यापारी, जो कुछ समयके लिए ब्रिटिश भारतीय संघके अध्यक्ष भी रहे थे।
  2. जोज़ेफ रायप्पन; इनका जन्म नेटालमें हुआ था और इनके माता-पिता गिरमिटिया भारतीय थे। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालयके स्नातक और बैरिस्टर। इनके छात्र-कालमें ट्रान्सवाल भारतीयोंका जो प्रतिनिधिमण्डल इंग्लैंड गया था, उसकी थोड़ी-बहुत सहायता की। बादमें वे सत्याग्रही बने और बिना परवाना फेरी लगा कर जेल गये। देखिए 'दक्षिण आफ्रिका के सत्याग्रहका इतिहास', अध्याय ३०।
  3. देखिए "जोहानिसबर्गकी चिट्टी", पृष्ठ १५५-५८।