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पत्र: जनरल स्मट्सको

पड़ेगा। जैसा कि मैंने सदैव कहा है, एशियाइयोंका लक्ष्य अधिनियमको रद कराना है, और इस लक्ष्यको प्राप्तिके लिए उन्होंने बहुत-कुछ किया, बहुत-कुछ त्यागा। मुझे भी लगा है कि आप यह मानते हैं कि एशियाई अधिनियम पूर्णतया खराब है, और प्रवासी-प्रतिबन्धक अधि- नियमका संशोधन समस्या समाधानका कोई अवांछनीय मार्ग नहीं है। मैं आपको एक बार फिर याद दिलाता हूँ कि मुलाकातोंमें आपने इस विषयपर मुझसे क्या कहा था। आपने कहा था, यदि एशियाई समझौते-सम्बन्धी अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर देंगे तो मैं एशियाई अधिनियमको रद कर दूँगा। मैं जानता हूँ कि आपने यह भी कहा था, यदि एक भी ऐसा अड़ियल एशियाई हुआ जो हठपूर्वक स्वेच्छया पंजीयन प्रमाणपत्र लेनेसे इनकार करता है तो मैं उसपर एशियाई अधिनियम जबरन लागू करूँगा। मेरी जानकारीमें, वस्तुतः ऐसा कोई अड़ियल एशियाई नहीं बचा है। किन्तु यदि ऐसे एशियाई हों, तब भी मैंने तो उपर्युक्त अभिव्यक्तिको एक शुद्ध दिखावटी अभिव्यक्ति माना है, जिसका उद्देश्य इस तथ्यपर जोर देना है कि उपनिवेशके तत्कालीन अधिवासियोंके बहुत बड़े बहुमतको समझौतेका पालन करना चाहिए। वैसा उन्होंने किया है।

इस वक्त समझौतेके लिए समयका बहुत महत्त्व है, और मुझे पूरी आशा है कि आप मुझे इस आशयका एक निश्चित बयान देनेकी अनुमति देंगे कि अधिनियम रद कर दिया जायेगा; अन्यथा मैं प्रार्थनापत्रके फार्मकी वापसीके सिलसिलेमें श्री चैमनेको लिखे गये अपने पत्रका[१] सहारा लेनेको अनिच्छापूर्वक विवश होऊँगा। मैं ऐसी किसी भी स्थितिको टालनेके लिए अत्यधिक उत्सुक हूँ, किन्तु आश्वासनके लिए संसदका अधिवेशन प्रारम्भ होनेके प्रथम सप्ताह तक प्रतीक्षा करना असम्भव है। अतः, यदि आप आश्वासन नहीं दे सकते, और यदि आप उन लोगोंको[२] प्रार्थनापत्रके फार्म नहीं लौटा सकते जिन्होंने उनकी वापसीके लिए लिखा है, तो हमें सर्वोच्च न्यायालयमें इस आशयकी अर्जी देनी पड़ेगी कि वह अपने आदेश द्वारा जबरन कागजोंकी वापसी करवाये।[३]

जहाँतक प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियममें किसी संशोधनकी बात है, मैं यह कहनेकी धृष्टता करता हूँ कि यदि लोगोंके देशमें रहने या प्रवेश करनेका प्रश्न एक प्रशासनिक अधिकारीकी मर्जीपर छोड़ दिया गया तो ऐसा कोई संशोधन एशियाइयोंको बिलकुल सन्तुष्ट नहीं करेगा। यह प्रश्न, अन्य सब उपनिवेशोंकी भाँति, यहाँ भी अदालतमें ही तय होना चाहिए।

यह कहनेकी आवश्यकता नहीं कि जो लोग पुरानी डच सरकारको ३ पौंडी शुल्क दे चुके हैं, उनके अधिकारोंकी रक्षा की जानी चाहिए। ऐसे बहुत-से लोग पहले से ही ट्रान्सवालमें वर्तमान हैं जिनके यहाँ निहित स्वार्थ हैं। उन लोगोंने भी प्रार्थनापत्र दिये हैं। मुझे विश्वास है कि श्री पैट्रिक डंकनने[४] जब पहली बार यह विधेयक पेश किया था, तब उनके बारेमें विचार कर लिया होगा, और मेरी रायमें उनके दावोंकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।

 
  1. देखिए "पत्र: एम० चैमनेको", पृष्ठ २५३-५४।
  2. बावजीर, क्विन और नायडूको; देखिए "पत्र: एम० चैमनेको", पृष्ठ २५३-५४, २५५ और २५६। "जोहानिसबर्गकी चिट्ठी, पृष्ठ २५८-६१।
  3. यह अर्जी २३ जून, १९०८ को दी गई थी।
  4. ट्रान्सवाल सरकारके भूतपूर्व उपनिवेश-सचिव; विधान परिषद्के सदस्य।