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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भारतीयों को भी यह सीखना पड़ेगा। यह बात एक दिनमें नहीं होती। आग लगी हो और तब यदि हम कुँआ खोदनेकी सयानी सीख दें तो वह किस कामकी? यह ताना ठीक होगा। किन्तु हम तत्काल उपयोगमें आ सकनेवाला इलाज भी बता रहे हैं; इसलिए यह ताना देनेकी जरूरत नहीं रहेगी। हमारा काम कारणोंकी गहराईमें जाना और मुख्यतया सबसे अच्छा उपाय बताना है। यदि हम फोड़ेका मूल खोजकर उसे नष्ट करनेकी दवा न दे सकें, और उसपर मरहम लगायें तो यह "नीम हकीमी" कहलायेगी।

जो उपाय तत्काल काममें आ सकता है, यह है कि भारतीय कौम सरकारको प्रार्थनापत्र दे और यह माँग करे कि जिन इलाकोंमें अधिक हत्याएँ हों वहाँ पुलिस अधिक चौकसी रखे। सरकार इस प्रकारकी चौकियाँ कोने-किनारेके हिस्सोंमें रख सकेगी, इसकी सम्भावना कम है। ऐसे स्थानोंमें हर इलाके और हिस्सेके लोगोंको मिलकर चौकीदार ढूँढ़ने चाहिए। यदि निर्जन हिस्सोंमें कुछ लोग ही रहते हैं, तो योग्य है कि वे आबादीके हिस्सोंमें जाकर बस जायें। एक साथ मिलकर यह सब करना सीखनेमें राष्ट्रीयता है। हम एक राष्ट्र बननेकी तैयारीमें हैं। हमें समझ लेना चाहिए कि इस युगके अर्थमें हम भारतीय एक राष्ट्र नहीं हैं। हम जो-कुछ नहीं हैं, यदि अपनेको वही मानें तो उससे हम वह हो नहीं जाते।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ६-६-१९०८

१६१. सर्वोदय [४]

सत्यकी जड़ें

अगर उपर्युक्त व्यवसायोंके लिए यह सम्भव है तो व्यापार-वाणिज्यमें क्यों नहीं हो सकता? व्यापारके साथ हमेशा अनीतिकी कल्पना कर ली गई है, इसका कारण क्या होगा सोचनेपर मालूम होगा कि व्यापारी हमेशा स्वार्थी ही होता है, ऐसा मान लिया गया है। यद्यपि व्यापारीका धन्धा भी लोगोंके लिए जरूरी होता है, तथापि हम ऐसा मान लिया करते हैं कि उसका हेतु तो अपनी तिजोरी भरना ही है। कायदे-कानून भी ऐसे बनाये जाते हैं। जिनसे व्यापारी झटपट मालामाल हो जाये । नीति-रीति भी ऐसी चलाई है कि खरीदार व्यापारीको कमसे-कम दाम चुकाये और बेचनेवाला जैसे बने तैसे खरीदारसे अधिक दाम माँगे और ले। इस प्रकार व्यापारीको आदत डाल दी गई है और फिर लोग खुद ही व्यापारीको उसकी अप्रामाणिकताके लिए नीच मानते हैं। इस नीति-रीतिको बदलने की जरूरत है। व्यापारी स्वार्थ ही साधे और धन ही इकट्ठा किया करे, ऐसा कोई नियम नहीं है। ऐसे व्यापारको हम व्यापार नहीं, चोरी कहेंगे। जिस प्रकार सैनिक राज्यके लिए मरता है, उसी प्रकार व्यापारीको जनताके सुखके निमित्त धन खर्च करना चाहिए और जान भी गँवानी चाहिए। सभी राज्योंमें सिपाहीका काम प्रजाकी रक्षा करना है, पादरीका उसे शिक्षण देना है; चिकित्सकका लोगोंको स्वस्थ रखना है; और वकीलका लोगोंमें शुद्ध न्याय फैलाना है; और व्यापारीका काम लोगोंकी आवश्यकता-पूर्तिके लिए जैसा चाहिए वैसा माल जुटाना है। योग्य अवसर आनेपर अपनी जान देना भी इन सब लोगोंका कर्तव्य है। मतलब यह है कि अपनी