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सर्वोदय [४]

जगह छोड़नेके बजाय सिपाहीको वहीं मृत्यु स्वीकार करनी चाहिए। महामारीके समय, खुद महामारीका शिकार हो जानेका खतरा उठाकर भी चिकित्सकको भागना नहीं चाहिए, बल्कि वहाँ हाजिर रहकर अपने रोगियोंकी सेवा-सँभाल करनी चाहिए। सत्यका उपदेश करनेके कारण लोग मार डालें तो भी, मरनेका संकट उठाकर भी, पादरियोंको असत्यका नहीं सत्यका ही उपदेश करना चाहिए। वकीलको ऐसा ही प्रयत्न करना चाहिए जिससे न्याय हो, फिर चाहे इस प्रयत्नमें उसके प्राण ही क्यों न चले जायें।[१]

हमने उपर्युक्त धन्धे करनेवालोंके लिए मरनेका उचित समय क्या होगा, इसकी चर्चा की। अब सोचें कि लोगोंके हितमें व्यापारीके लिए मरनेका उचित समय क्या हो सकता है। इस सवाल पर व्यापारियोंको और दूसरे सब लोगोंको भी विचार करना चाहिए। जो व्यक्ति समय पर मरनेको तैयार नहीं होता वह जीना क्या चीज है सो जानता ही नहीं है। हम देख चुके हैं कि व्यापारीका धन्धा लोगोंको आवश्यक माल जुटाना है। जिस प्रकार पादरीका धन्धा वेतन पाना नहीं बल्कि शिक्षण देना है, उसी प्रकार व्यापारीका काम मुनाफा बटोरनेका नहीं, बल्कि जरूरी जिन्सोंको पूरी तरह जुटा देना है। शिक्षण देनेवाले पादरीको जैसे रोटी मिल ही जाती है वैसे ही व्यापारीको मुनाफा मिल ही जाता है। लेकिन दोनोंमें से किसीका धन्धा वेतन या मुनाफेपर दृष्टि लगाये रखना नहीं है। वेतन अथवा मुनाफा मिले या न मिले, इसका खयाल किये बिना दोनोंको अपना धन्धा--अपना फर्ज--पूरा करना है। यदि यह विचार सही हो तो व्यापारी उत्तम सम्मानके योग्य है, क्योंकि उसका काम अच्छा माल पैदा करना और जनताको पुसा सकनेवाले ढंगसे उसे जुटाना है। ऐसा करनेमें उसके हाथके नीचे जो सैकड़ों या हजारों व्यक्ति रहा करते हैं, उनका रक्षण करना, उनकी सार-सँभाल करना--यह भी उसका काम है। ऐसा करनेके लिए बहुत धैर्य, बहुत कृपालुता और बड़ी चतुराईकी जरूरत होती है। और भिन्न-भिन्न काम करते हुए उसे भी दूसरोंकी तरह जान देनेकी जरूरत आ जाये तो वह दे। ऐसा व्यापारी, उसके ऊपर चाहे जो संकट क्यों न पड़ें, भिखारी बन जानेकी नौबत क्यों न आ जाये, खराब माल नहीं बेचेगा और न किसीको ठगेगा। इतना ही नहीं---वह मातहत लोगोंके साथ बड़ी ममताके साथ व्यवहार करेगा। प्रायः बड़े-बड़े कारखानोंमें अथवा व्यापारमें जो युवक नौकरी करने जाते हैं वे कभी-कभी अपने घरबारसे दूर चले जाते हैं। इसलिए या तो मालिकको उनके माँ-बापका स्थान लेना पड़ता है, या मालिक उनकी ओरसे लापरवाह रहा तो ये युवक बिना माता-पिताके हो जाते हैं। इसलिए व्यापारीको या मालिकको खुदसे पग-पगपर एक ही प्रश्न पूछते रहना उचित है: "मैं जिस तरह अपने बेटोंको रखता हूँ, उसी प्रकार अपने इन नौकरोंके प्रति बरताव कर रहा हूँ या नहीं?"

कल्पना कीजिए किसी जहाजके कप्तानके नीचे जो खलासी हैं उनमें उसका पुत्र भी भरती हो जाता है। कप्तानका फर्ज यह है कि सभी खलासियोंको अपने पुत्र जैसा ही माने। उसी प्रकार व्यापारीके नीचे काम करनेवाले अनेक नौकरोंमें उसका खुदका पुत्र भी हो, तो

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  1. मॉडर्न पेंटर्स, ( खण्ड २, भाग ३, सेक्शन १, अध्याय ३ ) में रस्किनने प्राणियों द्वारा अपने कर्तव्योंके आनन्दपूर्वक किये जानेकी छबिको ही सौन्दर्य बताया है। उसने कहा है कि मनुष्यमें जीवनकी उचित और आनन्दमय अभिव्यक्ति विशेषरूपसे सौन्दर्यकी प्रतीक है। गांधीजीने भी सत्याग्रहके सौन्दर्य (खूबी) को "सत्यको व्यक्त करनेके लिए सहे गये कष्ट" कहा है। सत्यका साक्षात्कार उसे स्वीकार करनेमें है और इस प्रकार वह सामाजिक सम्बन्धों को समन्वित करनेमें बुद्धिकी सहायता करता है।