पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 8.pdf/३१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

१६४. नेटालका परवाना कानून

हमें आशा है कि श्री काजीकी अपीलकी[१] सफलतासे कोई भारतीय ऐसा न समझेगा कि अब परवाना-सम्बन्धी तकलीफ दूर हो गई। उनकी इस जीतका अर्थ इतना ही है कि अपीलकी सुनवाई उन्हीं लोगोंकी हो सकती है जिनका उसमें स्वार्थ हो। इस अपीलको वैसा ही समझना चाहिए जैसा कि सोमनाथ महाराजका मामला[२] था। जबतक परवाना कानून मौजूद है और [ परवाना ] अधिकारीको सर्वोपरि सत्ता प्राप्त है तबतक भारतीय व्यापारियोंके लिए पूरी जोखिम कायम है। फिर, नया कानून पास होनेका डर है, जो जलेपर नमक छिड़कने जैसा है।

जिस समय समाज ऐसे संकटमें है उस समय कुछ लोग मेन लाइनके भारतीयोंके अधिकारोंकी बात लेकर झगड़ते नजर आ रहे हैं। हम तो ऐसा मानते हैं कि मेन लाइनके और दूसरी लाइनके भारतीयोंके हित विरोधी नहीं हैं, इसलिए यह सवाल खड़ा ही नहीं होता कि न्यासी कौन है। जबतक कांग्रेसका काम ईमानदारीसे होता रहे तबतक कहने-जैसा अधिक कुछ रहता नहीं। मेन लाइनके कई भारतीय उपाध्यक्षके पदपर हैं ही, और यदि वे कभी-कभी डर्बनमें हाजिर हो सकें तो वे प्रबन्धकारिणी समितिमें भी लिये जा सकते हैं। समितिमें दाखिल होना कठिन नहीं है। लेकिन दाखिल होनेके बाद यदि समितिकी बैठकोंमें हाजिर न हों तो उससे समितिका काम रुकना नहीं चाहिए। इसका सरल रास्ता यह है कि मेन लाइनवाले [ अपनी ओरसे ] डर्बनके ही किसी ऐसे आदमीको नियुक्त कर दें जिसपर उनका भरोसा हो और उसे हमेशा हाजिर रहनेके लिए कहें।

किन्तु जो संकट [ हमारे सामने ] खड़ा हुआ है उसे देखते हुए यह सारी चर्चा निरर्थक मालूम होती है। हम सबको सरकारके मुकाबलेमें खड़ा होना है। एक भारी पूर बढ़ता जा रहा है; उसे रोकना है। इसमें जितने मिलें उतने हाथोंकी जरूरत है। यह कैसे होगा? व्यापारियोंसे सम्बन्धित जो कानून अभी हैं और जो बननेवाले हैं उनका सच्चा इलाज सत्याग्रह है, और सत्याग्रहमें एकताकी बहुत जरूरत है। इसलिए हरएक भारतीयको हमारी यह सलाह है कि अभी तो वह शत्रुसे लड़नेके लिए बख्तर पहने।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १३-६-१९०८
 
  1. मामूली डिवीजनके परवाना अधिकारीने श्री काजीका परवाना नया कर दिया था, किन्तु परवाना निकायने उसकी पुष्टि करनेसे इनकार कर दिया। श्री काजीकी ओरसे निकायके इस निर्णयके खिलाफ नेटालके सर्वोच्च न्यायालयमें अपील की गई थी। अपीलका आधार यह था कि निकायके एक सदस्य श्री कार्टर उसी डिवीजनमें दूकान चलाते हैं इसलिए उक्त मामलेमें उनका स्वार्थ है, और फलतः वे उसपर विचार करनेके लिए योग्य व्यक्ति नहीं हैं। अपने निर्णयमें सर्वोच्च न्यायाधीशने यह राय व्यक्त की कि श्री कार्टरका उक्त मामलेमें ऐसा कोई स्वार्थं नहीं है, जिससे वे उस निकायके न्यायासनपर न बैठ सकें। श्री व्हिटकरके बारेमें, जो एक दूकानमें नौकर-मात्र था और जिसने निकायके समक्ष श्री काजीफा परवाना नया करनेके खिलाफ अपील की थी, सर्वोच्च न्यायाधीशने कहा कि उसका स्वार्थ इस कोटिका नहीं है कि परवाना दिये जानेके बारेमें उसका विरोध न्याययुक्त माना जा सके। जबतक सम्बन्धित मामलेमें किसी व्यक्तिका सीधा, व्यक्तिगत और ठोस स्वार्थ न हो तबतक उसे अपील करनेका अधिकार नहीं है। अदालतने परवाना निकायकी कार्यवाहीको रद कर दिया।
  2. देखिए खण्ड ६, पृष्ठ ४३७।