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१६६. सर्वोदय [५]

दौलतकी नसें

सत्यकी जड़ोंके विषयमें हम पहले जो कह आये हैं उसका जवाब अर्थशास्त्री शायद इस प्रकार देंगे: 'आपसकी स्नेहभावनासे कुछ लाभ होता है, यह सही है, किन्तु इस प्रकारके लाभका हिसाब अर्थशास्त्री नहीं किया करते। वे जिस शास्त्रका विचार करते हैं। उसमें तो केवल इस बातका विचार होता है कि किस प्रकारसे धनाढ्य हो सकते हैं। ऐसा शास्त्र गलत नहीं है, केवल इतना ही नहीं, बल्कि अनुभवसे मालूम हो सकता है कि वही प्रभावकारी है। जो उस शास्त्रके अनुसार चलते हैं, वे जरूर दौलतमन्द हो जाते हैं। और जो उसके मुताबिक नहीं चलते हैं, वे निर्धन हो जाते हैं। यूरोपके सभी धनवान व्यक्तियोंने इस शास्त्रके नियमोंका अनुसरण करके धन-संग्रह किया है। इस बात के विरोधमें दलीलें पेश करना व्यर्थ है। प्रत्येक अनुभवी व्यक्ति यह जानता है कि पैसा कैसे मिलता है और कैसे जाता है।'

यह उत्तर ठीक नहीं है। व्यापारी लोग पैसा कमाते हैं, परन्तु उन्होंने उसे ठीक साधनोंसे कमाया है या नहीं और उससे समाजका भला हुआ है या नहीं, सो वे नहीं जान सकते। वे लोग बहुत बार "पैसेवाला" शब्दका अर्थ भी नहीं समझते। जहाँ अमीर होते हैं, वहाँ गरीब होते ही हैं, इस बातका भान उन्हें नहीं होता। अनेक बार लोग भूलसे ऐसा मान लेते हैं कि अमुक रास्ते चलनेसे सभी अमीर बन सकते हैं। वास्तवमें यह प्रकिया कुएँके रहट जैसी है, जिसमें एक (डिब्बा) खाली होता है तभी दूसरा भरता है। आपके पास यदि एक रुपया है तो उसकी सत्ता उसीपर चलती है जिसके पास उतना न हो। यदि दूसरेको उस रुपयेकी गरज न हो तो आपके पासका रुपया आपके लिए बेकार है। मेरे रुपयेकी सत्ता मेरे पड़ोसीकी तंगदस्तीपर निर्भर है। जहाँ पैसेकी किल्लत होती है, वहीं अमीरीकी दाल गल सकती है। इसलिए सार यह निकला कि एकको अगर धनवान होना है, तो दूसरेको तंगीमें रखना होगा।

सार्वजनिक अर्थशास्त्रका मतलब है---ठीक समयपर और ठीक जगहपर आवश्यक एवं आनन्ददायक वस्तुओंका उत्पादन करना, उनको सुरक्षित रखना और उनका लेन-देन करना। जो किसान समयपर फसल तैयार करता और काटता है, जो राज चिनाई ठीक ढंगसे करता है, जो बढ़ई बढ़ईगीरी सुचारु रूपसे करता है, जो स्त्री अपना रसोईघर व्यवस्थित रखती है---इन सबको सच्चा अर्थशास्त्री मानना चाहिए; ये सब जातिकी दौलतमें वृद्धि करनेवाले हैं। इससे विपरीत जो शास्त्र है, वह सार्वजनिक नहीं कहा जा सकता। उसमें तो एक व्यक्ति केवल धातु इकट्ठी करता है और दूसरेको उसकी तंगीमें रखकर उस धातुका उपयोग करता है। इस प्रकारका उपयोग करनेवाले यह हिसाब लगाकर कि उनके खेतों और मवेशियोंसे कितना धन मिलनेवाला है अपनेको उतना धनवान मानने लगते हैं। वे यह नहीं सोचते कि उनके रुपयेका मूल्य सिर्फ इतना ही है जितने पशु व खेत वे उससे जुटा सकते हैं। और फिर जो लोग धातुका--रुपयोंका--संग्रह करते हैं वे इस तरह विचार करते हैं कि वे कितने मजदूर लगा सकेंगे। अब मान लें कि अमुक व्यक्तिके पास सोना, चांदी,