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पत्र: जनरल स्मट्सको

अनाज इत्यादि हैं। ऐसे व्यक्तिको नौकरोंकी गरज होगी ही; परन्तु यदि पड़ोसमें रहनेवालोंमें से किसीको सोने-चांदी या अनाजकी जरूरत न हो, तो उसे नौकर मिलना कठिन हो जायेगा। इसलिए उस धनाढ्य व्यक्तिको खुद ही अपनी रोटी पकानी पड़ेगी, खुद ही अपने कपड़े सीने पड़ेंगे, उसे खुद ही अपना खेत जोतना होगा। ऐसे व्यक्तिके लिए उसके सोनेका मूल्य उसके खेतकी एक पीली कंकड़ीके बराबर ही होगा। उसका अनाज सड़ेगा क्योंकि वह अपने पड़ौसीसे ज्यादा खानेवाला नहीं है। इसलिए उस व्यक्तिको दूसरोंकी भाँति कठिन परिश्रम करके ही अपना गुजारा करना होगा। ऐसी दशामें बहुत लोग सोना-चाँदी इकट्ठा करनेकी इच्छा न करेंगे। गहराईसे विचार करें तो देखेंगे कि पैसे संग्रह करने का अर्थ है दूसरोंपर सत्ता प्राप्त करना--अपने सुखकी खातिर नौकरकी, व्यापारीकी अथवा कारीगरकी मजदूरी हासिल करना। ऐसी सत्ता हमें दूसरे लोगोंकी गरीबीके अनुपातसे ही मिल सकती है। एक बढ़ईको नौकर रखनेवाला यदि एक ही आदमी होगा तो बढ़ईको रोजाना मजदूरीके रूपमें जो कुछ मिलेगा वही ले लेगा। यदि उसे रखनेवाले दो या चार व्यक्ति हुए, तो बढ़ई उसीके यहाँ [काम करने] जायेगा जो उसे ज्यादा [मजदूरी] देगा। निष्कर्ष यह निकला कि धनवान होनेका अर्थ है--जहाँतक बन सके उतने लोगोंको अपनेसे अधिक तंगीमें रखना। अर्थशास्त्री लोग बहुत बार मान लेते हैं कि इस प्रकार लोगोंको तंगीमें रखनेसे जातिको लाभ होता है। सब लोग एक जैसे ही हो जायें ऐसा तो होनेवाला नहीं है। लेकिन अनुचित ढंगसे लोगोंमें तंगी पैदा करनेसे जाति दुःखी होती है। कुदरती ढंगसे पैदा होनेवाली तंगी अथवा बहुतायतके रहनेसे जाति सुखी होती है और सन्तुष्ट रहती है।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १३-६-१९०८

१६७. पत्र: जनरल स्मट्सको[१]

जोहानिसबर्ग,
जून १३, १९०८

प्रिय श्री स्मट्स,

मुझे विश्वास है कि आज आपसे मेरी जो भेंट हुई थी, उसकी ओर आपका ध्यान आकृष्ट करने और कुछ समय लेनेकी धृष्टताके लिए आप मुझे क्षमा करेंगे। जबतक एशियाई प्रश्न, जहाँतक उसका सम्बन्ध एशियाई अधिनियमसे है, हल नहीं हो जाता तबतक मैं आपको कष्ट देनेके लिए मजबूर हूँ।

आपको इसमें सन्देह है कि मैं समाजका पूर्ण रूपसे प्रतिनिधित्व करता हूँ, या दूसरे शब्दोंमें, मैंने जो विचार प्रस्तुत किये हैं वे पूरे समाजके विचार हैं। मैं इसे केवल उसी हदतक स्वीकार करता हूँ जहाँतक इसका सम्बन्ध उन लोगोंसे है जिन्होंने अनाक्रामक प्रतिरोध-संघर्षके दौरान एशियाई अधिनियमको मान लिया था। उन्हें भी मेरे विचारोंसे विरोध नहीं

 
  1. यह पत्र ४-७-१९०८ के इंडियन ओपिनियनमें दुबारा प्रकाशित हुआ था, और इसकी एक प्रति श्री रिचने उपनिवेश कार्यालयको लिखे गये अपने २७ जुलाई, १९०८ के पत्रके साथ संलग्न करके भेजी थी।