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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है, किन्तु राष्ट्रीय-चरोंके समान वे भी अब अपने मुँहकी लाज रखना चाहते हैं। किन्तु मुझे आशा है कि आपकी सहायता मिलनेपर मैं समाजके अन्य सदस्योंकी तरह उन्हें भी अपने पक्षमें कर लूँगा। मेरी स्पष्ट राय है कि उन्होंने जो गलती की वह भयवश की। फिर भी उन्हें अपने पक्षमें लानेकी हर कोशिश की जा रही है। और यदि वे न मानें, तो भी क्या? वे बहुत थोड़ेसे लोगोंका प्रतिनिधित्व करते हैं। उनमें से कुछ लोगोंने मेरे साथ कई बार बातचीत की है; और एशियाई अधिनियम रद किया जाये, इसके लिए वे भी असंदिग्ध रूपसे उतने ही उत्सुक हैं जितना कि शेष समाज।

जहाँतक प्रवासी अधिनियमके संशोधनका प्रश्न है, मैं निम्नलिखित बातोंके सम्बन्धमें एशियाइयोंकी स्थिति बिलकुल स्पष्ट कर देना चाहता हूँ:

१. एशियाई समाज ऐसी कोई स्थिति कभी स्वीकार नहीं करेगा, जिसके अधीन उन लोगोंको, जो अभीतक देशमें प्रविष्ट नहीं हुए हैं, किन्तु जिन्हें प्रवेश करनेका अधिकार है, स्वेच्छया पंजीयन करा लेनेवाले एशियाइयोंसे भिन्न स्तरपर रखा जाये। अतः वे संशोधित अधिनियमके अनुसार ही अपने दस्तावेज बदलेंगे और स्वेच्छया पंजीयनकी अर्जीके फार्मपर ही प्रमाणपत्र लेंगे।

२. जिन शरणार्थियोंको शान्ति-रक्षा अध्यादेशके अन्तर्गत अभीतक अनुमतिपत्र नहीं मिले हैं उन्हें संरक्षण मिलना चाहिए। शरणार्थी किन्हें कहा जाये, इसकी परिभाषापर कोई आपत्ति नहीं की जायेगी। मेरा सुझाव है कि ११ अक्तूबर, १८९९ से पूर्व जो यहाँ दो वर्षतक रहे हों उन्हें शरणार्थी माना जाये, और एक वर्ष या कुछ ऐसी ही अवधि निश्चित कर दी जाये, जिसके भीतर उनके प्रार्थनापत्र स्वीकार किये जायें। उन्हें यह अधिकार भी होना चाहिए कि वे अपने दावेको किसी न्यायालयमें सिद्ध कर सकें।

३. जिन लोगोंके पास ३ पौंडी डच पंजीयन प्रमाणपत्र हों उन्हें भी संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए; यह सिद्ध करनेकी जिम्मेदारी उन्हींपर हो कि प्रमाणपत्र वास्तवमें उन्हींके हैं।

४. जिन लोगोंके पास शान्ति-रक्षा अध्यादेशवाले अनुमतिपत्र या एशियाई अधिकारियों द्वारा दिये गये अनुमतिपत्र हैं उन्हें भी संरक्षण मिलना चाहिए।

५. [इससे कोई बहस नहीं कि] परीक्षा कैसी हो, किन्तु जिन लोगोंमें अपेक्षित शैक्षणिक योग्यता है, उन्हें यूरोपीय प्रवासियोंकी भाँति ही स्वतन्त्रता होनी चाहिए।

६. कुछ ऐसे प्रार्थनापत्र भी दिये जा रहे हैं जिनका निर्णय श्री चैमनेने अभी नहीं किया है, या जिन्हें उन्होंने नामंजूर कर दिया है। इनका अन्तिम निर्णय न्यायालयमें होना चाहिए।

आपने मुझसे कहा था कि एशियाई अधिनियममें अधिवासके जो अधिकार दिये गये हैं उनसे अधिक आप नहीं देना चाहते। आप देखेंगे कि उपर्युक्त मामलोंमें केवल उन लोगोंको छोड़कर जिनके पास ३ पौंडी डच पंजीयन प्रमाणपत्र हैं, अन्य सभीके लिए एशियाई अधिनियमके अन्तर्गत व्यवस्था की गई है, और मेरे विचारमें तथा श्री डंकनके भाषणोंके अनुसार भी, डच पंजीयन प्रमाणपत्र रखनेवालोंको भी मर्जी-सम्बन्धी धाराके अन्तर्गत संरक्षण प्राप्त है। मेरा सुझाव तो सिर्फ यह है कि इस संरक्षणको उनका अधिकार मान लिया जाये, बशर्ते कि वे अपनी प्रामाणिकता सिद्ध कर दें।