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१६८. प्रार्थनापत्र: ट्रान्सवाल विधानसभाको [१]

जोहानिसबर्ग,
जून १५, १९०८

सेवामें
माननीय अध्यक्ष महोदय तथा सदस्यगण
ट्रान्सवालकी सम्मान्य विधानसभा
प्रिटोरिया

ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय संघके अध्यक्षकी हैसियतसे ईसप मियाँका प्रार्थनापत्र सविनय निवेदन है कि:

(१) प्रार्थीने उपनिवेशके स्वर्ण कानूनका संशोधन चाहनेवाले विधेयकके[२], जो अभी हालमें सरकारी 'गजट' में प्रकाशित किया गया है, खण्ड ३, १०४, ११३, ११४, १२७ और १२८ को, आतंककी भावनासे पढ़ा है।

(२) प्रार्थी नम्रतापूर्वक निवेदन करता है कि उपर्युक्त खण्डोंके परिणामस्वरूप-–यदि वे इस सम्मान्य सदन द्वारा स्वीकृत कर लिये गये --ट्रान्सवालमें बसे हुए ब्रिटिश भारतीयों-पर वर्तमान स्वर्ण कानूनके अन्तर्गत अपेक्षित निर्योग्यताओंसे अधिक गम्भीर निर्योग्यताएँ लग जायेंगी और इस प्रकार एक शान्तिप्रिय और विधिचारी समझे जानेवाले समाजके लिए भारी क्षति और विनाशका खतरा आ जायेगा।

(३) प्रार्थी इस सम्मान्य सदनका ध्यान इस उपनिवेशमें रहनेवाले ब्रिटिश भारतीयोंकी नीचे लिखी हुई कुछ खास आपत्तियोंकी[३] ओर आकृष्ट करनेका साहस करता है :

(क) अधिनियम "रंगदार व्यक्ति" की व्याख्यामें "कुली शब्द" बरकरार रखता है। और जैसा कि इस सम्मान्य सदनको निःसन्देह ज्ञात है, यह शब्द उपनिवेशकी मौजूदा ब्रिटिश भारतीय आबादीके सम्बन्धमें प्रयुक्त किया जाता है तो भावनाओंको आघात पहुँचानेवाला बन जाता है; क्योंकि ट्रान्सवालमें, सही अर्थोमें, "कुली" यदि हैं भी तो बहुत ही थोड़े हैं। इसके अतिरिक्त, एशियाइयों और आफ्रिकाके आदिवासियोंको, तथा ब्रिटिश प्रजाजन और गैर-ब्रिटिश प्रजाजनोंको एक ही कोष्ठकमें रखना सम्राट्के ब्रिटिश भारतीय प्रजाजनोंकी विशेष स्थितिकी उपेक्षा करना है।

(ख) प्रार्थीकी विनम्र सम्मतिके अनुसार "अनगढ़ सोने" की परिभाषाका मंशा भारतीय सुनारोंको विलायतमें तैयार किये गये तथा वहाँसे आयात किये गये

 
  1. यह २०-६-१९०८ के इंडियन ओपिनियनमें "ट्रान्सवाल स्वर्ण कानून: ब्रिटिश भारतीयोंका विरोध" शीर्षकसे प्रकाशित हुआ था।
  2. कच्चे स्वर्ण कानूनके तत्सम्बन्धी खण्डोंके लिए देखिए परिशिष्ट २।
  3. देखिए "पत्र: उपनिवेश सचिवको", पृष्ठ १९३-९४ भी।