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प्रार्थनापत्र: ट्रान्सवाल विधानसभाको

सोनेकी छड़से भी बर्तन या आभूषणादि निर्मित करनेका धन्धा चलानेसे रोकनेका है। निवेदन है कि सम्बद्ध सुनारोंके हकमें यह एक दारुण कठिनाई सिद्ध होगी।

(ग) रंगदार लोगोंपर कानूनकी सामान्य निषेधक धाराएँ तो लागू होती ही हैं, उनकी सीमातक, कच्चे सोनेके व्यापारके सम्बन्धमें मूल कानूनको भी यथावत् रहने दिया गया है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि इस प्रकारके अपराधोंमें रंगदार लोगोंकी प्रवृत्ति अपेक्षाकृत अधिक है, जबकि प्रार्थी संघकी विनम्र सम्मतिमें, जहाँतक ब्रिटिश भारतीयोंका मामला है, वस्तुस्थिति इसके विपरीत है।

(घ) प्रार्थी यह दावा करनेका साहस करता है कि अधिनियमका खण्ड १२७ अस्पष्ट रूपसे लिखा गया है और ऐसा प्रतीत होता है कि उसका मंशा इस अधिनियमके अन्तर्गत ब्रिटिश भारतीयों द्वारा कोई भी अधिकार प्राप्त करनेपर पूरा निषेध लगाना है। उसी खण्डके अन्तर्गत यह व्यवस्था भी की गई है कि विधेयकके पूर्व जिन लोगोंको जो-कुछ अधिकार प्राप्त थे, उनको वे किसी रंगदार व्यक्तिके नाम हस्तान्तरित नहीं कर सकते और न उन्हें शिकमी तौरपर ही दे सकते हैं। यह निषेध प्रस्तावित अधिनियमको प्रभावतः भूतलक्षी बनाता है।

(ङ) खण्ड १२८ का मंशा यह है कि कुछ घोषित क्षेत्रोंमें, उदाहरणार्थ पूरे विटवाटर्सरैंड जिलेमें बसे हुए ब्रिटिश भारतीयोंको अनिवार्य रूपसे पृथक् रखा जाये; और यदि उसे इस सम्मान्य सदनकी स्वीकृति मिल गई, तो ब्रिटिश भारतीयोंके एक बहुत बड़े भागका उपनिवेशमें रहना तक असम्भव हो जायेगा। प्रार्थी इस सम्मान्य सदनको स्मरण कराना चाहता है कि ट्रान्सवालमें रहनेवाले अधिकांश ब्रिटिश भारतीय उपर्युक्त क्षेत्रोंमें ही हैं, जबकि ब्रिटिश भारतीयोंको अनिवार्य रूपसे पृथक् रखे जाने और चूक हो जानेपर उनपर जुर्माना ठोंके जानेका सिद्धान्त वर्तमान निर्योग्यताओंको अप्रत्यक्ष साधनों द्वारा प्रत्यक्ष रूपसे कायम रखना है। प्रार्थी संघ इस निर्योग्यताका बराबर विरोध करता आया है।

(४) प्रार्थी यह दावा करनेका साहस करता है कि चूँकि ये धाराएँ जाति और वर्ग-भेदपर आधारित हैं, इसलिए उनसे ब्रिटिश भारतीय समाजको कभी भी सन्तोष प्राप्त नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त, इस प्रकारके भेदभाव उस समाजपर, जिसका प्रतिनिधित्व करनेका सौभाग्य प्रार्थीको मिला है, अकारण ही लांछन आरोपित करते हैं, क्योंकि वे ट्रान्सवालके गोरे उपनिवेशियोंके दिलमें ब्रिटिश भारतीयोंके प्रति घृणा और तिरस्कारके भाव अनिवार्य रूपसे भरे बिना नहीं रह सकते, और इस प्रकारसे इन दोनों जातियोंके बीच अधिक सद्भाव स्थापित होनेके मार्गमें दुर्भाग्यवश जो कठिनाइयाँ मौजूद हैं, उनमें वृद्धि होती है।

(५) प्रार्थीकी विनम्र सम्मतिमें उपर्युक्त प्रतिबन्धोंके फलस्वरूप स्पष्टतया ब्रिटिश भारतीयोंको किसी भी प्रकारकी विशेष सुविधा तो प्राप्त नहीं ही होती, उलटे वे अपने अनेक वर्तमान अधिकारों और सम्मानसे वंचित हो जाते हैं।

(६) प्रार्थी सम्मान्य सदनको इस बातका भी स्मरण कराता है कि ट्रान्सवालमें बसी हुई ब्रिटिश भारतीय जनतापर और अधिक निर्योग्यताएँ लादनेका फल यह होगा कि भारतमें रहनेवाले सम्राट्के करोड़ों प्रजाजनोंके मनमें भरे कटुता और सन्तापके भाव और भी उग्र हो उठेंगे।