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सर्वोदय [६]

लिखित वचन[१] भी ले सकता है। इसमें कुछ गैरकानूनी हुआ, ऐसा कोई नहीं कह सकता। अब अगर कोई परदेशी वहाँ पहुँचे तो वह देखेगा कि एक व्यक्ति धनवान हो गया है और दूसरा बीमार पड़ा है। वह यह भी देखेगा कि एक ऐश-आराम करता हुआ आलस्यमें पड़ा रहता है और दूसरा मजदूरी करते हुए भी तकलीफ उठा रहा है। पाठक इससे समझ सकेंगे कि दूसरेसे मजदूरी करानेके हकका नतीजा यह होता है कि वास्तविक धनमें कमी होती है।

अब दूसरी मिसाल लीजिए: तीन व्यक्तियोंने एक राज्य[२] स्थापित किया और तीनों अलग-अलग रहने लगे। प्रत्येकने पृथक्-पृथक् फसल तैयार की जिसका उपयोग सब कर सकते थे। तब कल्पना कीजिए कि उनमें से एकने सबका समय बचानेके लिए अपनी खेती छोड़कर एकका माल दूसरेको पहुँचानेका उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया और बदलेमें अनाज लेना निश्चित किया। यदि यह व्यक्ति नियमित रूपसे माल[३] लाया और ले जाया करे तो सबका फायदा हो। लेकिन मान लीजिए कि यह व्यक्ति मालके लेन-देनमें चोरी करता है और बादमें जब तंगीका जमाना आ जाता है, उस समय यह दलाल अपने चुराये हुए अनाजको ऊँचे दामों बेचता है। इस तरह आगे चलकर यह व्यक्ति दोनों किसानोंको भिखारी बना सकता है और अन्तमें उन्हें अपना मजदूर बना सकता है।

ऊपरका दृष्टान्त निरा अन्याय बताता है। लेकिन आजके व्यापारियोंका कारोबार इसी प्रकार चल रहा है। इसके अतिरिक्त हम यह भी देख सकेंगे कि इस प्रकार चोरीकी घटना घटित होनेके पश्चात् यदि तीनोंकी मिल्कियत इकट्ठी की जाये तो, उस व्यक्तिके प्रामाणिक होने और रहनेपर वह जितनी होती उसकी अपेक्षा कम बैठेगी। उन दो किसानोंका काम कम हुआ। उनकी जरूरतकी चीजें न मिलनेके कारण वे अपने परिश्रमका पूरा फल नहीं पा सके। और उस चोर दलालके हाथमें चोरीका जो माल[४] आया था, उसका पूरा और अच्छा उपयोग नहीं हो सका।

इसलिए हम गणितका-सा [सूक्ष्म] हिसाब लगाकर कह सकते हैं कि अमुक जातिको धनवान मानने या न माननेका आधार यह है कि उस जातिके धनकी जाँच करके यह मालूम किया जाये कि वह दौलत उसे किस प्रकार मिली है। जातिके पास इतना धन है इसलिए वह उतनी धनवान है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। अमुक व्यक्तिके हाथमें अमुक धनका होना या तो लगन, होशियारी और खुशहालीका चिह्न हो सकता है या विनाशकारक मौज-मजा, अत्याचार और धोखेबाजीका सूचक हो सकता है। और इस प्रकार हिसाब करनेकी रीति केवल नीति ही नहीं प्रकट करती, बल्कि अंकगणितसे गिना जा सकनेवाला धन [भी] सूचित करती है। एक धन ऐसा होता है जिसके उत्पन्न होते समय और दसगुना धन पैदा होता है; दूसरा ऐसा जिसके किसी आदमीके हाथमें आनेसे दस-गुने धनका नाश हो जाता है।

इसलिए नीति-अनीतिका खयाल किये बिना धन एकत्रित करनेके नियम गढ़नेकी बातसे मनुष्यका सिर्फ अहंकार प्रकट होता है। सस्तेसे-सस्ते दामोंमें खरीदने और महँगेसे-महँगे दामोंमें बेचनेकी जो पद्धति है उसके बराबर इनसानको लांछन लगानेवाली और कोई चीज

 
  1. ऋणी व्यक्तिका तात्कालिक जरूरतको पूरा करनेके बदलेमें गुलामके रूपमें काम करनेका वचन।
  2. जनतन्त्र (रिपब्लिक) जिसका उल्लेख अन्टु दिस लास्टमें है।
  3. खेतीके औजार, बीज आदि।
  4. अन्न और खेती औजार जो दलालने चुरा लिये थे।