पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 8.pdf/३३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं है। सस्तेसे-सस्ते दामोंमें लेना सो बात तो समझमें आई। लेकिन भाव घटा कैसे? आग लगनेके पश्चात् कड़ियोंके जल जानेपर उनसे बने हुए कोयले सस्ते हो सकते हैं; भूचालसे ढहे हुए मकानोंकी ईंटें सस्ती हो सकती हैं। परन्तु इससे यह कहनेका किसीका साहस नहीं होगा कि आग और भूचाल लोगोंके लाभके लिए थे। 'महँगेसे-महँगा बेचना' तो समझमें आ गया, परन्तु महँगाई आई कैसे? रोटीका मूल्य आज आपको अच्छा मिला, लेकिन वह दाम क्या आपने मरते हुए आदमीकी अन्तिम कौड़ी लेकर प्राप्त किया? या यह रोटी आपने किसी ऐसे महाजनको दी जो कल आपका सब हड़प कर लेगा? या किसी डाकूको सौंपी जो आपका बैंक लूटने जा रहा है? यह सम्भव है कि शायद आप इन प्रश्नोंमें से एकका भी उत्तर न दे सकें क्योंकि आप जानते ही नहीं हैं। परन्तु इतना तो आप बतला ही सकते हैं कि आपने रोटी उचित मूल्यपर और नीतिके मार्गसे बेची थी या नहीं। उचित न्यायकी ही फिक्र रखनेकी जरूरत है। आपके कामसे किसीको दुःख न पहुँचे, इतना ही जान लेना और उसीके अनुसार व्यवहार करना आपका कर्तव्य है।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २०-६-१९०८

१७६. तार: जोहानिसबर्ग कार्यालयको

प्रिटोरिया,
जून २२, १९०८

सेवामें
गांधी
जोहानिसबर्ग

मुलाकात असन्तोषजनक। प्रवास-सम्बन्धी संशोधन कठोर। उससे शैक्षणिक कसौटी तथा पुराने डच प्रमाणपत्र अस्वीकृत। पाँच बजे शामको बैठक बुलायें। अस्वात ईसप मियाँके हलफनामोंपर हस्ताक्षर करवा लें। मेरा स्टेशन ले आयें।

गांधी

भेजे गये तारकी मूल अंग्रेजी प्रतिकी फोटो-नकल (एस० एन० ४८२९) से।