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१८५. जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

मंगलवार [जून २३, १९०८]

समझौता?

"सोचना आदमीका, करना ईश्वरका काम है", यह बात सभी मनुष्योंके मनमें अंकित रहनी चाहिए। हमने सोचा था कि कानून सोमवारको खत्म हो जायेगा; और उसी दिन हुआ यह कि कमसे-कम फिलहाल कानून बना रहेगा।

शनिवारको श्री स्मट्सने श्री गांधीसे कहा: सोमवारको मिलना। एक-दो मामूली बातें रह गई हैं, उनपर विचार करना है; शेष सब तैयार है।" '[ट्रान्सवाल] लीडर' नामक समाचारपत्रने सोमवारको सम्पादकीय लेखमें सूचित किया कि कानून रद करनेकी बात पक्की हो गई है।

सोमवारको श्री गांधी श्री स्मट्ससे मिले। कानून रद करनेको जो विधेयक बनकर छप गया था वह दिखलाया गया और [कहा गया कि] यदि भारतीय समाजको पसन्द हो, तो यह विधेयक पास किया जायेगा और कानून रद होगा। लालच तो जबर्दस्त था। स्वेच्छया पंजीयन करा लेनेवाले लोगों और आगे चलकर इस प्रकार पंजीयन करानेवाले लोगोंकी दृष्टिसे नया विधेयक बहुत अच्छा था। खूनी कानूनकी कोई भी आपत्तिजनक शर्त उसमें दिखाई नहीं पड़ी। लेकिन, इस विधेयकमें "किन्तु" लगा हुआ था। इस प्रकारका विधेयक स्वीकार करनेसे नीचेके अधिकार जाते थे:

(१) शिक्षित लोग नहीं आ सकते।

(२) तीन पौंडी डच पंजीयनवाले लोग नहीं आ सकते।

(३) दूसरे शरणार्थी नहीं आ सकते।

(४) इस समय श्री चैमने जिनके प्रार्थनापत्रोंकी जाँच कर रहे हैं, उनके प्रार्थनापत्र यदि मंजूर न हों तो उनके [प्रशासनिक][१] निर्णयके खिलाफ कोई दाद-फरियाद नहीं की जा सकती।

अर्थात् यदि इतने लोगोंके अधिकार छोड़ दें तो प्रवासी कानूनमें परिवर्तन किया जायेगा और खूनी कानून खत्म होगा।

खूनी कानून खत्म हो अथवा न हो, किन्तु भला जो सचमुच हकदार हैं उनका हक छोड़ा ही कैसे जा सकता है? इसलिए श्री गांधीने उसे स्वीकार नहीं किया और समझौते की

 
  1. दरअसल, गांधीजीने, स्मट्सको लिखे गये, अपने १३ जूनके पत्रमें जो मुद्दे उठाये ये वे स्वीकार नहीं किये गये। जून २४ की सार्वजनिक सभामें भाषण देते हुए अध्यक्ष ईसप मियाँने निम्नलिखित बातोंपर जोर दिया था: (क) ट्रान्सवालमें अधिवासके दावेके सम्बन्धमें पंजीयनके प्रार्थीसे गवाही खुले और अदालती तौरपर ली जाये, ताकि किसी भी सरकारी निर्णयका कारण गुप्त नहीं रह सके; और (ख) उपनिवेशमें पहलेसे ही रहनेवाले थोड़े-से भारतीयोंको प्राप्त होनेवाली शंकास्पद सुविधाओं की कीमतपर वे भावी शिक्षित भारतीयोंके अधिकारोंको बेच नहीं देंगे।