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१८६. भाषण: सार्वजनिक सभामें'[१]

[ जोहानिसबर्ग
जून २४, १९०८ ]

इतने अधिक तारोंका आना जाहिर करता है कि इस सभाके उद्देश्यपर सब एकमत हैं। यद्यपि मैंने ये तार आपको पढ़कर सुनाये हैं तथापि मुझे इस सभा, ब्रिटिश भारतीय संघकी कार्य-समिति और ट्रान्सवालकी जनताको बता देना चाहिए कि इस सभाकी हवामें एक सनसनी है और इन तारोंसे निश्चय ही सम्पूर्ण सत्य व्यक्त नहीं होता। सम्पूर्ण सत्य यह है कि इस सभामें भी कुछ ऐसे भारतीय हैं जिन्हें समझौतेके बारेमें नेताओंकी, और खासकर स्वयं मेरी कार्रवाईपर क्षोभ है। जैसा कि अध्यक्षने अपने भाषणमें कहा है, इस सभामें ऐसे अनेक भारतीय उपस्थित हैं जो सोचते हैं कि सम्पूर्ण भारतीय समाज स्वार्थपूर्ण उद्देश्योंके लिए बेच दिया गया है। अध्यक्षने इस अभियोगका खण्डन किया है।[२] मैं भी इसका खण्डन करता हूँ। परन्तु मेरे जो देशवासी खासकर मेरे विरुद्ध यह अभियोग लगाते हैं, मैं उनको दोष नहीं देता।

मेरे कुछ देशवासी मुझसे कहते हैं, और कदाचित् उनके इस कथनमें कुछ औचित्य भी है, कि जब जेलमें दिखाये गये पत्रके बलपरमें जनरल स्मट्ससे मिलने गया, तब मैंने उनसे सम्मति क्यों नहीं ली। यह अच्छा होगा कि मैं स्वयं उनकी शिकायतोंको पेश करूँ। मेरा विश्वास है कि जनरल स्मट्ससे मिलकर मैंने ठीक किया और अपनी अन्तरात्माके अनुसार किया। परन्तु समयने यह सिद्ध कर दिया है कि उनका कहना सही है और मुझे जनरल स्मट्सके पास जानेकी आवश्यकता नहीं थी। मैंने केवल इतना ही किया कि सम्पूर्ण भारतीय समाजने उनके सामने, एक वर्षसे ऊपर हुआ, स्वेच्छया पंजीयनका जो प्रस्ताव रखा था, उसे मान लिया। उस समय मैंने सोचा कि मैं, इस स्वेच्छया पंजीयनको स्वीकार करके, कुछ नहीं खो रहा हूँ, न कोई नया सिद्धान्त, न कोई रियायत। मुझे विश्वास था कि मेरे देशवासियोंकी ओरसे मुझे ऐसा करनेका पूर्ण आदेश है। परन्तु मैंने बहुत अधिक विश्वास किया। मुझे इसके आगे आनेवाले परिणामकी खबर नहीं थी। मैं नहीं जानता था कि अधिनियमके रद किये जानेके बारेमें दिये गये पक्के वादेका खण्डन कर दिया जायेगा। अब मैं समझ गया हूँ कि सरकार समझौतेका पालन नहीं करेगी।

 
  1. इस सभाका आयोजन ट्रान्सवाल सरकार द्वारा ३० जनवरी १९०८ के "समझौतेके तत्त्वतः तोड़े जाने" से उत्पन्न स्थितिपर विचार करनेके लिए ब्रिटिश भारतीय संघके तत्वावधानमें शामको ३ बजकर ४५ मिनटपर हुआ था। उसमें सारे ट्रान्सवालके प्रतिनिधि उपस्थित थे। सभामें पास किये गये प्रस्तावोंके लिए देखिए, परिशिष्ट ५।
  2. अध्यक्षने कहा था: "अध्यक्ष और मन्त्रीको पीटनेवाले लोग सरकारका विश्वास नहीं करते थे। उनके विचारमें, हमने उन्हें भरमाया, और जब समय आया तो समाजको सरकारके हाथों बेच दिया। मैं ऐसी किसी भी बातसे जोरदार ढंगसे इनकार करता हूँ, लेकिन यह बात अस्वीकार नहीं कर सकता कि अपने हालके आचरण द्वारा सरकारने उनकी शंकाओं और अविश्वासको सिद्ध कर दिया है।"