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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्रतिबन्धोंसे घेर दिया गया है कि जिन्हें कोई भी स्वाभिमानी पुरुष स्वीकार नहीं कर सकता।

अनाक्रामक प्रतिरोध आन्दोलन उन समस्त एशियाइयोंके, जिन्हें इस देशमें बने रहनेका हक है, अधिकारोंकी प्राप्तिके लिए चलाया गया है, न कि थोड़े-से चुने हुए लोगोंके लिए। और यदि मेरी दृष्टिमें ऐसा एक आदमी मौजूद है जो लेडीस्मिथमें रहता है, जो इस देशमें १८८५ में आया और जिसने यहाँ रहनेके लिए बोअर सरकारको २५ पौंड दे दिये हैं, जो यहाँ व्यापार करता है और जिसके पास यूरोपीयों द्वारा दिये गये परिचयपत्र हैं और तब भी वह इस देशमें प्रवेश नहीं कर सकता, तो कमसे कम मैं यहाँ नहीं रहूँगा, बशर्ते कि लोग मेरे जानेके पहले ही मेरे इस सिरको जिसने उन्हें भारी हानि पहुँचायी जान पड़ती है उतार न लें।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ४-७-१९०८

१८७. पुनः अनाक्रामक प्रतिरोध

बहुत खेदकी बात है कि यद्यपि जनरल स्मट्स एशियाई अधिनियमको रद करनेके लिए राजी हो गये हैं, किन्तु ऐसी बातोंपर, जो महज तफसीलकी हैं, या औपनिवेशिक दृष्टिसे जिनका कोई महत्त्व नहीं है, उन्होंने कठोर रुख अख्तियार कर लिया है। जनरल स्मट्सका यह रुख बहुत-कुछ गुड़ खाने और गुलगुलोंसे परहेज करने-जैसा है। उक्त अधिनियमको रद करनेके अपने प्रस्तावको ट्रान्सवालके एशियाइयोंको होनेवाले सारे लाभोंसे रिक्त करके उन्होंने उसकी सारी शोभा नष्ट कर दी है। और इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ब्रिटिश भारतीयोंने इस प्रस्तावको, जो परिणामतः उन्हें एक समुदायके रूपमें उनकी लड़ाईसे पहलेकी हालतकी अपेक्षा कहीं अधिक बुरी हालतमें डाल देता है, तुरन्त अस्वीकार कर दिया। यह सच है कि जनरल स्मट्सने उन लोगोंकी स्थितिको अधिक सुविधाजनक बनाकर, जिन्हें कि उन्होंने उक्त अधिनियमको रद करनेके लिए तैयार किये गये विधेयकमें शामिल किया है, एक आकर्षक प्रलोभन दिया था। हमारे लोगोंकी प्रशंसामें यह तो कहना ही चाहिए कि वे इस प्रलोभनमें नहीं फँसे। अनाक्रामक प्रतिरोधियोंके नाते वे अपने लाभके लिए उन दूसरे लोगोंके अधिकारोंको नहीं बेच सकते थे जिन्हें ट्रान्सवालमें रहने या प्रवेश करनेका उतना ही अधिकार है जितना उन्हें। सार्वजनिक सभाकी कार्रवाईसे यह बात असन्दिग्ध रूपमें प्रकट हो गई है कि भारतीय लड़ाईको अन्ततक चलाने के लिए सदाकी तरह कृत-निश्चय हैं और इस बार उन्हें पहलेसे ज्यादा सहानुभूति तथा सहायता मिलेगी और यदि जनरल स्मट्सके मनमें, वे जिस साम्राज्यके नागरिक हैं, उसके प्रति कुछ भी आदर-भाव है, तो वे अभी भी, समय रहते, भारतीयोंकी भावना को ठेस पहुँचानेसे हाथ खींच लेंगे।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २७-६-१९०८