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१९५. जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

[ जुलाई २, १९०८ के पूर्व ][१]

सत्याग्रहका जोर

सत्याग्रहका संघर्ष फिर प्रारम्भ हो गया है। भारतीय हजारों तरहकी बातें कर रहे हैं। सभी साहसी जान पड़ते हैं।

यह संघर्ष किसलिए है?

यह सवाल ठीक तरह समझ लेना आवश्यक है। इस बार हमारा संघर्ष कानून रद करानेके लिए नहीं है, क्योंकि कानून रद करनेके लिए तो स्मट्स साहब तैयार थे, और वह रद होगा भी। जिन्हें कानून स्वीकार नहीं करना है उनके लेखे वह रद हुआ जैसा ही है।

फिर, यह संघर्ष अँगुलियोंकी छाप देनेके बारेमें भी नहीं है। अँगुलियोंकी छापका प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है। रोडेशियामें अँगुलियोंकी छाप नहीं माँगी जाती,[२] लेकिन उससे शर्मिन्दगी कम नहीं होनेवाली है। जहाँ प्रतिष्ठाकी रक्षा करने और गुलामी खत्म करनेकी बात है, वहाँ अँगुलियोंकी छापके प्रश्नका क्या महत्व?

यह संघर्ष तो उनका है जिनके पास डचोंके वक्तके तीन पौंडी पंजीयनपत्र हैं। उनका है जो बाहर बैठे हैं, किन्तु जो यह सिद्ध कर सकते हैं कि वे स्वयं ट्रान्सवालके पुराने निवासी हैं, और यह शिक्षित भारतीयोंके लिए भी है। इतनी बात हरएक भारतीयको ठीक-ठीक समझ लेनी है।

जब समझौता हुआ, तब इसके बारेमें निर्णय होना सम्भव नहीं था। तब तो यही साबित करना था कि भारतीय समाज खरा है। तबतक सिर उठानेकी स्थिति नहीं थी। उस समय तीन पौंडी पासवालों, दूसरे शरणार्थियों तथा शिक्षितोंकी स्थिति डावाँडोल थी इसलिए उनके बारेमें कुछ निर्णय होना सम्भव नहीं था।

किन्तु अब, जब कानून रद करते समय जनरल स्मट्स उन लोगोंकी स्थितिके सम्बन्धमें निर्णय अहितकर रूपमें करना चाहते हैं और उनको अलग करनेका प्रयत्न करते हैं तब भारतीय समाज उसका खुलासा कर सकता है।

इससे किसीको समझौतेमें दोष निकालना नहीं चाहिए। समझौता हुआ---भारतीय समाजने अपनी शक्ति दिखाई---तभी तो हम इस दर्जे तक जानेमें समर्थ हुए हैं।

उपाय

उपाय एक ही है और वह हमारे हाथमें है। हमें सरकारी कानूनकी परवाह किये बिना नीचेके अनुसार बरतना चाहिए:

(१) जब जरूरत पड़े, स्वेच्छापूर्वक लिया गया पंजीयन प्रमाणपत्र जला दिया जाये।

(२) पुलिस अँगुलियोंकी छाप, हस्ताक्षर अथवा नाम माँगे तो वे न दिये जायें।

 
  1. यह 'चिट्ठी' सर्वोच्च न्यायालय द्वारा श्री अस्वातके हलफनामेपर, जिसमें उन्होंने अपने स्वेच्छया पंजीयनके प्रार्थनापत्रकी वापसीकी माँग की थी, निर्णय देनेसे पूर्व लिखी गई थी। मुकदमेकी सुनवाई २ जुलाईको हुई थी।
  2. देखिए "रोडेशियाके भारतीय", पृष्ठ २५७-५८।
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