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१९९. सर्वोदय [८]

धन नदीकी भाँति है। जिस तरह नदी हमेशा समुद्रकी ओर, अर्थात् नीचेकी ओर बहा करती है, उसी प्रकार धनको जहाँ जरूरत हो, उस जगह जाना चाहिए--ऐसा नियम है। परन्तु जिस तरह नदीकी गतिमें परिवर्तन हो सकता है, उसी प्रकार धनकी गतिमें भी परिवर्तन हो सकता है। अनेक नदियाँ जहाँ-तहाँ वहा करती हैं और उनके आसपास बहुत पानी जमा हो जानेके कारण विषाक्त वायु उत्पन्न होती है। अगर उन्हीं नदियोंपर बाँध बाँधकर उनका पानी, जहाँ जरूरत समझी जाये, वहाँ ले जाया जाये तो वह पानी जमीनको उपजाऊ बनाता है, और आसपासकी हवाको भी शुद्ध करता है। इसी प्रकार, धनका यदि मनमाना उपयोग किया जाये तो लोगोंमें दुष्टता बढ़ेगी और भुखमरी फैलेगी। संक्षेपमें वह धन विषरूप हो जायेगा। परन्तु यदि उसी धनकी गतिपर नियन्त्रण कर लिया जाये, उसका उपयोग नियमानुसार किया जाये तो बाँधी हुई नदीकी भाँति वह धन सुख-समृद्धि फैलायेगा।

अर्थशास्त्री लोग धनकी गतिकी रोकथामका नियम बिलकुल ही भूल जाते हैं। उनका शास्त्र केवल धन पानेका शास्त्र है, परन्तु धन तो अनेक प्रकारसे प्राप्त किया जाता है। एक जमाना था, जब यूरोपमें लोग धनवान व्यक्तिको विष देकर उसका धन खुद लेकर धनाढ्य बन जाते थे। आजकल निर्धन लोगोंके लिए जो खूराक तैयार की जाती है, उसमें व्यापारी लोग मिलावट कर दिया करते हैं---जैसे दूधमें सुहागा, आटेमें आलू, काफीमें चिकोरी, मक्खनमें चरबी इत्यादि। यह भी जहर देकर धनवान बननेके समान है। क्या इसे हम धनवान बननेकी कला या शास्त्रका नाम दे सकते हैं?

लेकिन ऐसा नहीं मानना चाहिए कि अर्थ-शास्त्री बिलकुल ऐसा ही कहते हैं कि लूटके द्वारा धनवान बनना चाहिए। उन्हें कहना चाहिए कि उनका शास्त्र "कानून और न्यायके रास्ते धनवान बननेका शास्त्र है। आजके जमानेमें ऐसा होता है कि बहुत-सी बातें कानूनके अनुकूल होनेपर भी न्याय-बुद्धिके प्रतिकूल होती हैं। इसलिए न्यायके रास्तेपर धन कमाना ही धन कमाने का सही रास्ता है। और यदि न्यायके रास्ते धन कमाना ही ठीक हो, तो मनुष्यका पहला काम न्याय-बुद्धिको सीखना है। केवल लेन-देनके नियमके अनुसार काम लेना या व्यापार करना ही काफी नहीं है। मछलियाँ, भेड़िए, चूहे इसी प्रकार रहते हैं। बड़ी मछली छोटी मछलीको खा डालती है, चूहे छोटे जन्तुओंको खा जाते हैं। भेड़िया मनुष्य तक को खाता है। उनका दस्तूर ही यही है। उनकी बुद्धिमें कुछ और आता ही नहीं है। परन्तु ईश्वरने मनुष्यको समझ दी है, न्याय-बुद्धि दी है। अतएव दूसरोंको खाकर, उन्हें ठगकर, उन्हें भिखारी बनाकर, मनुष्यको खुद धनवान नहीं होना है।

तो अब हमें यह देखना है कि मजदूरोंको मजदूरी देनेका नियम क्या है?

हम ऊपर कह आये हैं कि मजदूरकी वाजिब मजदूरी यह है कि वह आज हमारे लिए जितना श्रम करे उतना ही श्रम उसे, आवश्यकता पड़नेपर, हम दे दें। अगर उसे [ उसके परिश्रमको देखते हुए ] कम मजदूरी दी गई तो कम, और ज्यादा दी गई तो ज्यादा बदला मिला।