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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

[ मान लीजिए ] एक व्यक्तिको मजदूरकी जरूरत है। दो आदमी मजदूरी करनेको तैयार होते हैं। अब, जो मजदूर कम मजदूरीपर काम करनेको तैयार है उसे काम दिया जाये तो उस मजदूरको कम मिलेगा। यदि मजदूर माँगनेवाले ज्यादा हों, और मजदूर एक ही हो तो उसे मुँह-माँगा पैसा मिलेगा और उस मजदूरको जितना चाहिए उसकी अपेक्षा अधिक मजदूरी मिलेगी। इन दोनों मजदूरोंकी मजदूरीकी औसत मजदूरी वाजिब मजदूरी मानी जायेगी।

मुझे कोई व्यक्ति कुछ रकम उधार दे और वह रकम मुझे अमुक समयके पश्चात् वापिस देनी हो तो मैं उस व्यक्तिको ब्याज दूँगा। उसी प्रकार अगर आज कोई मुझे अपना श्रम दे तो मुझे उचित है कि मैं उसे उतना श्रम और उससे कुछ अधिक ब्याजके रूपमें दूँ। आज अगर कोई व्यक्ति मेरे लिए एक घंटा काम करता है तो उसके लिए मुझे एक घंटा और पाँच मिनट अथवा उससे भी कुछ अधिक काम करनेका वचन देना चाहिए। इसी प्रकार प्रत्येक मजदूरके विषयमें समझना चाहिए।

अब अगर मेरे पास दो मजदूर आयें और उनमें से जो कम मजदूरी लेता है, उसे मैं कामपर लगाता हूँ तो परिणाम यह होगा कि जिसे मैंने कामपर लगाया वह आधा भूखा रहेगा और जो कामके बिना रह गया है वह यों ही रह जायेगा। जिस मजदूरको मैं रखता हूँ उसे मैं पूरी मजदूरी चुकाऊँ तो भी दूसरा मजदूर तो बेकार रहेगा ही। लेकिन जिसे मैंने रख लिया है उसे भूखों नहीं मरना पड़ेगा और (तब) मैंने अपने धनका उचित उपयोग किया है, ऐसा माना जायेगा। सच्ची भुखमरी तब प्रारम्भ होती है, जब कम मजदूरी चुकाई जाती है। यदि मैं उचित मजदूरी देता रहूँ तो मेरे पास फालतू दौलत जमा न होगी, मैं गुलछर्रें नहीं उड़ाऊँगा और मैं गरीबी बढ़ानेका साधन न बनूँगा। जिसे मैं उचित दाम दूँगा वह दूसरोंको भी उचित दाम देना सीखेगा और इस प्रकार न्यायका झरना सूखनेके बजाय, जैसे-जैसे आगे बढ़ता जायेगा, और जोर पकड़ेगा। जिस प्रजामें इस प्रकारकी न्यायबुद्धि होगी, वह प्रजा सुख पायेगी और उचित रीतिसे खुशहाल होगी।

इस विचार-सरणीके अनुसार अर्थ-शास्त्री गलत ठहरते हैं। वे कहते हैं कि जैसे-जैसे स्पर्धा बढ़ेगी वैसे-वैसे प्रजा समृद्ध होगी। वास्तवमें यह बात गलत है। स्पर्धा---होड़---का हेतु मजदूरीकी दर घटाना है; ऐसी दशामें धनवान अधिक धन जमा करता है, और गरीब ज्यादा गरीब होता जाता है। इस प्रकारकी स्पर्धासे अन्ततोगत्वा प्रजाके विनाशकी सम्भावना है। लेन-देनका सही नियम ऐसा होना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्तिको उसकी योग्यताके अनुसार पारिश्रमिक मिले। स्पर्धा इसमें भी रहेगी, फिर भी परिणाम यह निकलेगा कि लोग सुखी होंगे और कुशल बनेंगे, क्योंकि तब मजदूरी प्राप्त करनेके लिए उन्हें अपनी दर घटानेकी जरूरत न रहेगी। तब उन्हें काम प्राप्त करनेके लिए कुशल होना पड़ेगा। ऐसे ही कारणोंसे लोग सरकारी नौकरी प्राप्त करनेके लिए तैयार हो जाते हैं। उसमें श्रेणीके अनुसार वेतन निश्चित किया हुआ रहता है। स्पर्धा केवल कुशलताकी ही होती है। प्रार्थी कम वेतन लेनेकी बात नहीं कहता, दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें अधिक कुशलता होनेकी बात कहता है। जलसेनामें और सिपाहीकी नौकरीमें ऐसा ही नियम बरता जाता है। और इसीलिए ऐसे विभागोंमें अनीति और गड़बड़ी कम देखनेमें आती है। गलत होड़ व्यापारमें ही चल रही है और उसके परिणामस्वरूप छल, कपट, चोरी इत्यादि अनीति बढ़ गई है। दूसरी ओर जो माल तैयार होता है वह खराब और सड़ा हुआ होता है। व्यापारी सोचता है कि मैं