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२०१. पत्र: 'इंडियन ओपिनियन' को

जोहानिसबर्ग
जुलाई ४, १९०८

सम्पादक
'इंडियन ओपिनियन'
महोदय,

श्री सोराबजीके खिलाफ, जो एक सुसंस्कृत और अंग्रेजी शिक्षा-प्राप्त पारसी सज्जन हैं और जिन्होंने प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमके अन्तर्गत उपनिवेशमें प्रवेश किया है, दायर किये हुए परीक्षात्मक मुकदमेसे एशियाई संघर्षकी दूसरी मंजिल प्रारम्भ होती है। श्री सोराबजीके पास चार्ल्स टाउन नगर-निगमके अध्यक्ष तथा अन्य यूरोपीयों द्वारा दिये गये शानदार प्रमाण-पत्र हैं। अब उनके खिलाफ प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमके अन्तर्गत नहीं, बल्कि एशियाई कानून संशोधन अधिनियमके अन्तर्गत इस कारण मुकदमा चलाया जानेवाला है कि वे ऐसे एशियाई हैं जिनका उस कानूनके अन्तर्गत पंजीयन नहीं हुआ है। मैं एशियाई अधिनियमके अन्तर्गत चलाये जानेवाले मुकदमेके बारेमें कुछ नहीं कहता ---क्योंकि वह मामला अभी न्यायालयमें विचाराधीन है; परन्तु मुकदमा एशियाई अधिनियमके अन्तर्गत दायर किया जानेवाला है, इस तथ्यसे मेरी वह बात प्रमाणित होती है, जिसे मैंने जनरल स्मट्सके सामने रखने का साहस किया है, कि शिक्षित एशियाई प्रवासी प्रतिबन्धक अधिनियमके अन्तर्गत उपनिवेशमें प्रवेश करनेके लिए स्वतन्त्र है। यह बात सब जानते हैं कि यदि वे एशियाई अधिनियमको स्वीकार नहीं करते तो उन्हें निकाल दिये जानेका हुक्म जारी किया जा सकता है। इसी कारण प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियमके विरुद्ध दिये गये प्रार्थनापत्रमें[१] यह कहा गया था कि सरकारने एक हाथसे जो कुछ दिया वह दूसरे हाथसे वापस ले लिया। यदि श्री सोराबजी एशियाई अधिनियमके अन्तर्गत किये गये अपमानको सहन कर सकेंगे तो वे प्रतिबन्धित प्रवासी न होंगे। एशियाई अधिनियमको रद करनेके बदले जनरल स्मट्स एशियाई लोगोंसे जो दे देनेके लिए कहते हैं वह है सर मंचरजी भावनगरी जैसे लोगोंके अधिकारोंका बलिदान।

अब यह बात स्पष्ट रूपसे प्रकट हो जायेगी कि एशियाई लोग कोई ऐसी चीज नहीं माँग रहे हैं जिसे वे कानून द्वारा पानेके अधिकारी नहीं हैं। प्रिटोरियामें कथित जाली अनुमतिपत्र-निर्माताकी गिरफ्तारीको देखते हुए आज उपनिवेशके सामने जो कुढंगी स्थिति है वह यह है कि जो लोग अधिकारप्राप्त निवासी हैं और जिन्होंने सरकारकी सहायता की है, वे असुविधापूर्ण स्थितिमें रखे जा सकते हैं जब कि वे भारतीय, जो बेईमान हैं और जो देशमें जालसाजीसे या किसी और तरीके से घुस आते हैं उसमें बिना किसी छेड़छाड़के बने रह सकते हैं;

 
  1. देखिए खण्ड ७, पृष्ठ १८५।