पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 8.pdf/३७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३४०
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बहसके बाद श्री गांधीने कहा कि मैं जानता हूँ कि यह एक कानूनी भूल है, किन्तु सफाई पक्षके लिए ऐसा कदम उठाना लाभदायक है।

न्यायाधीश: और उन्हें फिर लाइए, और जितनी तकलीफ सम्भव हो, दीजिए।

श्री गांधी: यही मुद्दा है।

न्यायाधीशने कहा कि मैं कुछ दूसरे मामले देखू़ँगा, और अपना निर्णय कल सुबह दूँगा।[१]

[अंग्रेजीसे]
स्टार, ८-७-१९०८

२०४. जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

मंगलवार [जुलाई ७, १९०८]

संघर्ष

हम सर्वोच्च न्यायालयमें हार गये। न्यायाधीश सॉलोमनने कहा कि समझौतेके साथ श्री स्मट्सको दी गई अर्जी [उन्हीं के शब्दोंमें] का सम्बन्ध नहीं है।[२] उन्होंने यह भी कहा कि जेलसे [स्मट्सको] लिखे गये पत्र तथा श्री स्मट्सके जवाबसे कानून रद करनेका वचन प्रकट नहीं होता। स्वेच्छया पंजीयनके प्रार्थनापत्र वापस नहीं लिये जा सकते, क्योंकि वे पत्रोंके समान हैं। कानून यह है कि यदि किसीको पत्र लिखा जाये, तो उसका मालिक पानेवाला होता है। इसी प्रकार वे प्रार्थनापत्र भी सरकारके हैं। किन्तु न्यायाधीशने यह भी कहा कि भारतीयोंको

 
  1. ११-७-१९०८ के इंडियन ओपिनियनमें निम्नलिखित समाचार प्रकाशित हुआ था जिसपर ९ जुलाईकी तारीख पड़ी थी: "श्री सोराबजी शापुरजीका मुकदमा सुनवाईके लिए आज अदालतमें पेश हुआ। न्यायाधीशने श्री गांधीके तर्कको ठीक माना और अभियुक्तको निर्दोष पाकर रिहा कर दिया। तुरन्त बाद ही श्री सोराबजीको न्यायाधीशके निर्देशपर कल (शुक्रवारको) अदालतमें हाजिर होकर उसी प्रकारके एक अभियोगकी सफाई देनेका आदेश दिया गया....।
  2. निर्णयकी जो रिपोर्ट प्रकाशित हुई, उसके अनुसार न्यायाधीश सॉलोमनने कहा था: निश्चय ही ऐसा कोई वादा [कानून रद करनेके सम्बन्धमें] उन पत्रोंमें नहीं किया गया है और न कोई ऐसी बात उनमें कही गई है जिससे यह प्रकट हो कि उपनिवेश-सचिवका इरादा ऐसा है। उपनिवेश- सचिवने अधिनियमको रद करना मंजूर कर लिया हो, यह अत्यन्त असम्भव प्रतीत होता है; और एशियाइयोंकी ओरसे उपनिवेश-सचिवको लिखे गये एक पत्रमें एशियाइयोंने कहा है: "हम मानते हैं कि संसदके कार्यावकाश-कालमें कानूनको रद करना सम्भव नहीं है और आपकी बार-बार की गई इस सार्वजनिक घोषणाकी ओर भी हमारा ध्यान गया है कि कानूनके रद होनेकी कोई सम्भावना नहीं है' [पृष्ठ ४०]। इससे प्रतीत होता है कि यह अधिनियम रद न किया जायेगा, यह स्थिति उन्होंने स्वीकार कर ली थी...किन्तु जब प्रार्थी प्रार्थनापत्रको इस इरादेसे एशियाई पंजीयकको दे देता है कि वह उसके पास रहेगा तब वह प्रार्थीकी सम्पत्ति नहीं रहता, एशियाई पंजीयककी सम्पत्ति हो जाता है...इसलिए यह अर्जी खर्चके साथ नामंजूर की जाती है।" इंडियन ओपिनियन, ११-७-१९०८।